मानवाधिकार कार्यकर्ता और दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर (94) का शुक्रवार को नई दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया, जहां उन्हें कुछ दिनों पहले भर्ती कराया गया था। सच्चर भारत के उन न्यायधीशों में थे जिन्होंने जीते-जी अपनी पहचान आम लोगों के हितों और हुकुकों पर बात करने वाले न्यायाधीश और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता के रूप में बनाई तथा वे अपने कार्यों से लोगों को चौंकाने के लिए जाने भी जाते हैं। कई बार इस कारण उन्हें सरकार का कोपभाजन भी बनना पड़ा।
जस्टिस सच्चर का जन्म 22 दिसंबर 1 9 23 को हुआ था। वे 6 अगस्त 1985 से 22 दिसंबर, 1985 के बीच दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे थे। उनकी सेवानिवृत्ति के बाद, वे मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) के साथ जुड़े थे। इसके अतिरिक्त जस्टिस सच्चर सिक्किम और राजस्थान हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश भी रहे।
उनकी प्रारम्भिक शिक्षा लाहौर के डीएवी में पूरी हुई। हाई स्कूल और उस शहर के लॉ कॉलेज से कानून में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1952 में शिमला में एक वकील के रूप में दाखिला लेने के बाद, उन्होंने सभी प्रकार के मामलों – नागरिक, आपराधिक और राजस्व पर अभ्यास करना शुरू कर दिया।
2005 में, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने उन्हें मुस्लिम समुदाय की स्थिति का अध्ययन करने और उनके सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए एक समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया था। उस रिपोर्ट को अब सच्चर समिति की रिपोर्ट के रूप में जाना जाता है। इस रिपोर्ट ने इस बात पर प्रकाश डाला कि मुस्लिमों का नागरिक सेवा, पुलिस, सैन्य और राजनीति में कम प्रतिनिधित्व है। इस रिपोर्ट ने यह भी बताया कि देश में मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति व जनजाति से भी बद्तर है।
वे मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र उप-आयोग के सदस्य भी थे। साथ ही, जस्टिस सच्चर 22-27 मई, 1993 को पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ तथा कुलदीप नैयर व अन्य लोगों द्वारा जारी किए गए एक रिपोर्ट “कश्मीर स्थिति पर रिपोर्ट” के लेखकों में से एक थे।
वे, पोटा कानून को मानवाधिकार के विरुद्ध मानते थे। इस संदर्भ में उन्होंने कहा था, “मैं मानता हूं आतंकवाद बढ़ा है, लेकिन आतंकवादी जांच के नाम पर, कई निर्दोष लोगों को बिना आरोप दर्ज किये हिरासत में लिया जाता है और उन्हें लंबी अवधि के लिए हिरासत में लिया जाता है।“
इसी तरह से वे भारतीय दंड संहिता के धारा 124A को भी अमानवीय समझते थे। जवाहरलाल नेहरू द्वारा 1951 में भारतीय संसद में कहे गए कि “जितनी जल्दी हम इससे छुटकारा पाएंगे उतना बेहतर है,” को संदर्भ देते हुए, उन्होंने जनवरी, 2012 में कहा था “दुखद है कि हमें सरकार से नेहरु के संकल्प को अमल में लाने के लिए कहना पड़ रहा है। लोकतांत्रिक समाज होने के लिए, यह आवश्यक है कि इस तरह के कानून न हों।”
चाहे न्यायालय हो, किसी समिति के सदस्य होना हो अथवा सड़क, हर जगह वे जनता के हित में मानवीय कानूनों के प्रबल पक्षधर नज़र आये। 16 अगस्त 2011 को सच्चर को इस कारण अन्ना हजारे और उनके समर्थकों की हिरासत में विरोध के दौरान नई दिल्ली में गिरफ्तार भी किया गया था।
आपको ज्ञात हो कि पोटा और गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम जैसे कानून नागरिक अधिकारों के लिए कितने खतरनाक हैं। किसी कानून को किसी मुजरिम को सज़ा देने के लिए बनाया जाता है, पर ये वे कानून हैं जो आप पर शंका मात्र से लागू हो जाते हैं।
चाहे पोटा कानून को लेकर विरोध करने की बात हो, कश्मीर के हालात की बात हो, मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 की समीक्षा की बात हो, झुग्गियों में रहने वाले लोगों के अधिकारों की बात हो अथवा ऐसे अन्य मामलों में पक्षधरता की बात; वे हर जगह आम लोगों के हित में खड़े दिखते हैं।
आम-आवाम के हक मे किए गए कार्यों, नागरिक अधिकारों की वकालत करने तथा सख्ती से शोषितों, उपेक्षितों, मज़लूमों आदि के पक्ष में लिए गए स्टैंड के कारण वे हमारे दिलों में हमेशा रहेंगे। उनके कार्य उनके जैसे लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत साबित होंगे।
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