कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिये
कहां चराग मयस्सर नहीं शहर के लिये।
हम जिस भारतवर्ष में रहते हैं और जिसकी राजधानी दिल्ली है जो खुद में कई राजे-रजवाड़ों , कई-कई सभ्यता-संस्कृतियों और न जाने किन-किन लोगों के सपनों को आकार देने या दफ्न हो जाने का इतिहास खुद में समेटे पूरी शान से आज भी उसी रुतबे में है। वही दिल्ली, रोटी की तलाश में देश भर से आने वाले मेहनतकश लोगों को क्या दे पाती है?
जिस श्रमिक वर्ग से मैं आज आपको रु-ब-रु करवाने जा रही हूं उससे पहले ये जानना भी ज़रूरी हो जाता है कि इस वर्ग के अंतर्गत कौन आते हैं। श्रमिक वर्ग के अंतर्गत ऐसे लोग आते हैं जिनमें दक्षता की कमी होती है और जो अपना श्रम बेचकर निम्न आय उपार्जित करते हैं। श्रमिक वर्ग औद्योगीकृत या गैर-औद्योगीकृत किसी भी क्षेत्र में कार्यरत कार्यबल हो सकते हैं। अपने गाँव के आस-पास काम न मिलना या अपने गाँव में कृषि के लिए पर्याप्त ज़मीन का न होना इनके प्रवास का एक बड़ा कारण देखा गया है। हाल के दिनों में बड़े शहरों के लिए प्रवासी श्रमिकों का आना और काम के लिए वहीं रह जाना जैसी प्रवृति देखी जा रही। ऐसे में किसी गैर शहर में प्रवासी श्रमिक रोज़ाना कई प्रकार की समस्याओं को झेलने को मजबूर हैं।
सभी प्रवासी श्रमिकों की समस्याएं एक सी ही हैं। शहरों की सुव्यवस्था और यहां मिलने वाली सुविधाएं देखकर श्रमिक अपने क्षेत्र को छोड़कर यहां आने को आकर्षित होते हैं। पर जैसा उन्हें दूर से दिखता है वैसा कुछ उन्हें मिलता नहीं है। बिज़नस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 100 मिलियन प्रवासी मज़दूरों श्रमिक मौसमानुसार या चक्रीय कारण से प्रवास करता है।
दिल्ली में आपको प्रवासी श्रमिकों की बहुत बड़ी संख्या मिल जाएगी जिसमें से ज़्यादातर आपको बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश से आए मजदूर ही मिलेंगे। यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि यहां इनकी स्थिति क्या है? क्या जिस उद्देश्य के साथ ये अपने गांव/शहर को छोड़कर बड़े शहरों की ओर प्रवास करते हैं उसके करीब पहुंच पाते हैं? इन सब का जवाब ढूंढना बेहद ज़रूरी बन जाता है। इसी की तलाश में मैं दिल्ली के चांदनी चौक और चावरी बाज़ार इलाके में पहुंची।
सबसे पहले मेरी मुलाकात मोहम्मद ज़ुबैर (45 वर्ष ) नाम के शख्स से हुई जो पेशे से एक रिक्शा चालक हैं। वो बिहार के कटिहार के रहने वाले हैं । बातों के क्रम मे पता चला कि ये करीब 20 साल पहले आजीविका की तलाश में यहां आए थे। इतने सालों बाद भी किराए का रिक्शा चलाते हैं जिससे रोज़ाना कि आमद 200-300 के बीच हो जाती है। ये पूछने पर कि सरकार की तरफ से कोई आवासीय सुविधा या कोई अन्य सुविधाएं आपको मिली है इनका जवाब था नहीं। हां बातचीत के क्रम मे इन्होंने इतना ज़रूर बताया कि जिस मकान में ये रहते हैं वो दिल्ली डेवलपमेंट अथॉरिटी(DDA) का है। जो दिल्ली के अरुणा असफ अली मार्ग में है पर ये भी किराए का एक कमरा है जिसका किराया 6000 है और इस एक कमरे मे तकरीबन 7 लोग रहते हैं।
इसके बाद मेरी बात बिहार के किशनगंज से आए मोहम्मद इरफान(28 वर्ष) से हुई। आवास के बारे में इसकी भी हालत कुछ अच्छी नहीं थी । 4000 किराए के एक रूम मे करीब 8-10 लोग रहते हैं। सरकार की तरफ से आवास की सुविधा या किसी अन्य सुविधा पर इसने कहा कि सरकारी आदमी आते हैं और चले जाते हैं। आज तक कोई भी सुविधा हमें नहीं मिली है । बस जैसे -तैसे जी-खा रहे हैं। लगभग सभी रिक्शा चालक की समस्याएं एक सी ही थी।
थोड़ी दूर और चलने पर मेरी मुलाकात पेशे से पेंटर का काम करने वाले मज़दूरों से हुई। सभी एक जगह काम की तलाश में बैठे थे। इनकी जगह निश्चित होती है कि यहां बैठना है, लोग आएंगे और इन्हें अपने-अपने काम के हिसाब से अपने साथ ले जाएंगे। मुरादाबाद से आए रमेश (45 वर्ष ) ने बताया कि वे यहां तकरीबन 15-20 साल से रह रहे हैं पर सरकार की तरफ से आज तक कोई भी सुविधा उन्हें प्राप्त नहीं हुई है। आवास के बारे में पूछने से पता चला कि वे अपनी रात रैनबसेरे में गुज़ारते हैं। जब मैंने पूछा कि रोज़ाना कितनी आमदनी हो जाती है तो उन्होंने बताया अगर काम मिल जाता है तो 400-500 कमा लेते हैं पर हर रोज़ काम ही नहीं मिलता।
पेशे से एक और पेंटर मोहम्मद जामिल ने बताया कि एक आदमी आया था और जॉब कार्ड बना कर दे गया था कि हम तुमलोगों को काम दिलवाएंगे और सबसे 200-200 रुपे भी ले गया। ना तो आज तक हम सब को काम मिला और ना पैसे वापस मिले। मोहम्मद जामिल का कहना था कि नई सरकार के आने से हमारी हालत और खराब हो गयी है।
एक और पेंटर सलीम ने बताया कि वो मस्जिद में रात बिताते हैं। देखते-देखते कई मज़दूर आस-पास खड़े हो गए और अपनी समस्याएं बताने लगे। उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे कि मैं कोई सरकारी आदमी हूं और उनकी समस्याओं का कोई हल निकालने आई हूं।
उत्तर प्रदेश के बदायूं से आए पेंटर हरीश (32 वर्ष) तीन बेटियों के पिता हैं। रैनबसेरे में रात गुज़ारते हैं। रोज़ाना काम ना मिल पाने से आर्थिक तंगी से गुज़रना पड़ता है। हरीश ने एक गंभीर सवाल खड़ा किया सुरक्षा का। बहुत ही भावुक होकर कहा कि हमारे काम में कोई सुरक्षा भी नहीं होती “हम मौत के झूले पर हर पल झूलते हैं।” पेंटर सतपाल की कहानी भी एक सी ही थी अमरोहा से 7-8 साल पहले काम कि तलाश में दिल्ली का रुख किया था। 8 सदस्य हैं परिवार में और अकेला कमाने वाला वो रैनबसेरे में रात बिताने को मजबूर।
इन सबकी हालत जानने के बाद मैं थोड़ा आगे और चलकर ठेले चलाने वाले मजदूरों के पास पहुंची। सभी काम मे व्यस्त थे तो दिल को तसल्ली हुई कि चलो किसी को तो काम मिला है। इसमें से एक मज़दूर जिसका नाम राम कुमार था मेरे पास आया और पूछा मैडम आप क्या पता करने आई हैं। मेरा इतना कहना था कि हम न्यूज़ की तरफ से हैं सरकार की तरफ से आपको रहने या किसी अन्य तरह की क्या-क्या सुविधाएं दी गयी हैं ये पता करने आए हैं। इतना कहते ही उसने बोला कि सरकार की तरफ से न तो हमको आवास दिया गया है और न ही कोई और सुविधा ही दी गयी है। पूछने पर पता चला कि वो बिहार के मोतीहारी का रहने वाला है। यहां पर 3000 किराए के एक रूम मे 5-6 लोग के साथ रहता है। रोज़ाना की आमदनी भी 150-200 ही होती है।
इसी की तरह बिहार सुपौल के गीदरही गांव का रहने वाला विनोद साह से भी मेरी बात हुयी जो ठेले पर खीरा बेच रहा था। इसकी हालत बाकियों से भी खराब थी। आवास के बारे में पूछने से पता चला कि ये पटरी पर सोता है और किसी पार्क के शौचालय का इस्तेमाल करता है। विनोद साह ने एक सवाल किया कि “मैडम सब चीज़ बड़ा लोग को ही काहे मिलता है हम छोटा लोग के लिए कुछ भी नहीं ऐसा काहे ? इस सवाल का जवाब तो मेरे पास भी नहीं था मैं कुछ नहीं बोल पायी।
झारखंड के साहेबगंज से आए बदरुल व अब्दुल अजीज जो किसी दुकान में माल ढोने का काम करते हैं। दोनों की उम्र कोई 45 के आस-पास थी। आवास के बारे में पूछने से पता चला की ये ठेले पर ही सोते हैं। और साथ में एक स्टोव रखते हैं और मिलकर कहीं भी रोड पर ही खाना बना लेते हैं। इनके अलावा न जाने कितने मज़दूर थे जिनसे मेरी बातें हुईं । लगभग सबकी समस्याएं एक सी थी। इनमें से कई की उम्र इतनी हो गयी थी की उन्हें काम तक नहीं मिलता। इससे पता चला की बढ़ती उम्र भी एक बहुत बड़ी समस्या है।
इन सबसे बात करने के बाद मैंने रुख किया रंजीत नगर अवस्थित बस्ती में जहां घरेलू महिला श्रमिकों के घरों की बदहाल स्थिति देख कर मन विचलित हो गया। तंग कमरे जिसमें 7-8 लोग बिलकुल वैसा ही जैसा उपरोक्त पुरुष श्रमिकों ने बयां किया था। चार तल्लों के एक मकान में 20-30 लोगों के बीच सिर्फ एक शौचालय जिसकी स्थिति आप तस्वीरों में देख कर साफ समझ सकते हैं। एक गुसलखाना वो भी बिना दरवाज़ों के सभी महिला सदस्य तब तक स्नान नहीं कर पाती जब तक सारे पुरुष सदस्य काम पर नहीं निकल जाते। महिलाओं की सुरक्षा और मर्यादापूर्ण जीवन जैसे शब्द इनके लिए नए थे ।
तंग कमरे में एक साथ कई लोगों का रहना, या कार्यस्थल पर ही रह जाना या खुले में कहीं भी सो जाना इनकी मजबूरी है। क्यूंकी बहुत से मजदूर ऐसे भी हैं जो निर्वाह मजदूरी भी बमुश्किल से उपार्जित कर पाते हैं। तंग कमरे में एक साथ कई लोगों का रहना इनकी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होता है। कहीं- कहीं 20-25 लोगों के बीच एक ही शौचालय का होना भी इनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है।
मैं गयी तो थी इनकी आवासीय समस्याओं का पता लगाने पर आवास के साथ वो सारी समस्याओं का पता चला जिनसे इन्हें रोज़ाना दो-चार होना पड़ता है। बातों के क्रम में सरकारी योजनाओं की खामियों का भी पता चल गया। कुछ के प्रधानमंत्री जनधन खाते तो खुले थे पर बहुतों के खुले भी नहीं थे। जब रुपे कार्ड के बारे में पूछा तो कोई एक मजदूर भी रुपे कार्ड का मतलब नहीं समझ पाया। जब ये पूछा कि एटीएम कार्ड मिला था खाता खोलते वक्त तो 1-2 लोगों से जवाब मिला की हां मिला था पर आज तक इस्तेमाल नहीं किए हैं। पूछा पैसे कैसे निकालते या डालते हो तो बताया बैंक जाकर फारम से निकलते और डालते हैं।
इन्हें न तो रुपे कार्ड की जानकारी थी और न ही ओवरड्राफ्ट की सुविधा की जानकारी थी और ना ही जनधन खाते के माध्यम से मिलने वाली बीमा की जानकारी। आखिर प्रत्यक्ष हस्तांतरण का लाभ इन्हें कैसे मिल रहा? जब इन्हें एटीएम कार्ड तक इस्तेमाल करना नहीं आता। आखिर बैंक मित्र किसे शिक्षित कर रहे ? क्या सरकार का डिजिटल इंडिया कार्यक्रम इस तरह से सफल हो पाएगा?
सरकार की सभी योजनाएं चाहे वो संस्थागत प्रसव के लिए जननी सुरक्षा योजना हो, एलपीजी कनेक्शन के लिए उज्ज्वला योजना हो या स्वच्छ भारत के लिए शौचालय निर्माण योजना हो। कुछ लोगों तक ही इसकी पहुंच हो पायी है आज भी ज़्यादातर बीपीएल परिवारों तक इसकी पहुंच सुनिश्चित नहीं हो पायी है। इसका एक बहुत बड़ा कारण जो समझ आया वो है जानकारी की कमी। इन्हें सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी ही नहीं होती, इन्हें पता ही नहीं कि इनके अधिकार क्या-क्या हैं तो आखिर ये योजनाओं का लाभ कैसे उठा पाएंगे?
इनकी अवस्थिति इतनी बदहाल क्यूं है और सरकार की तरफ से इनके लिए कोई ठोस कानून की व्यवस्था है की नहीं इन सबकी जानकारी हमें मिली दिल्ली श्रमिक संगठन से जो 1991 से श्रमिकों के अधिकार के लिए काम करता आ रहा है। बातों के क्रम मे पता चला कि प्रवासी श्रमिकों का कोई उचित आंकड़ा किसी भी राज्य सरकार के पास उपलब्ध नहीं है। जबकि सभी डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट का ये काम है कि उसके क्षेत्र से कितने श्रमिक प्रवास कर रहे हैं इसकी जानकारी उसके पास होनी चाहिए। लेकिन किसी भी कानून का पालन न होना और श्रमिकों को जानकारी न होना कि उन्हें पलायन करने से पहले किसी को सूचित करना है आंकड़ें न होने का एक बड़ा कारण है। साथ ही संसद द्वारा अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिक (सेवा नियमन और सेवा की शर्तों) अधिनियम, 1979 कानून बनाया गया था। लेकिन ये कानून भी सिर्फ कागजों पर ही सिमट कर रह गया।
हालांकि दिल्ली श्रमिक संगठन(SRUTI) के कई वर्षों के प्रयास ने इन मज़दूरों की ज़िंदगी को अब थोड़ा आसान बनाया है। भारत सरकार और दिल्ली सरकार की तरफ से नई दिल्ली झुग्गी और जे जे पुनर्वास और पुनर्वास नीति, 2015 लायी गयी है जिसके अनुसार स्लम को तोड़ने से पहले पुनर्वास अनिवार्य है। साथ ही एक नया मास्टर प्लान भी लाया गया है जिसके तहत वर्टिकल डेव्लपमेंट की व्यवस्था की गयी है। इसके अनुसार स्लम ड्वेलर्स को ज़मीन न देकर सीधा आवास उपलब्ध करवाया जाएगा।
श्रमिकों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए क्या-क्या किया जा सकता है? इसपर सरकार के द्वारा कुछ कदम उठाए जा सकते हैं-
-सभी श्रमिकों एवं प्रवासी श्रमिकों को उनके अधिकार बताएं जाएं। उनको उनके अधिकारों के लिए नियमित जागरूकता कार्यक्रम चलाया जाना चाहिए।
-मज़दूरों की समस्याओं को सुनने और निपटान के लिए एक सुसंगठित निपटान तंत्र प्रणाली की भी व्यवस्था होनी चाहिए ।
-केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार के मध्य सहयोग का भाव होना चाहिए ताकि केन्द्रीय योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू किया जा सके।
-सभी श्रमिकों का पंजीकरण अनिवार्य होना चाहिए और एक यूनिक नंबर दिया जाना चाहिए।
-शुद्ध पेयजल, घर, और शौचालय तक सबकी पहुंच सुनिश्चित की जाए।
-न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम को कड़ाई से लागू किया जाए क्यूंकी किसी भी मजदूर को न्यूनतम भुगतान नहीं किया जाता।
एक प्रवासी इन्फॉर्मेशन सेंटर होना चाहिए।
-महिला कामगारों की सुरक्षा के लिए भी एक तंत्र का गठन किया जाना चाहिए।
-एक यूनिवर्सल हेल्पलाइन नंबर होना चाहिए जहां 24*7 घंटे मज़दूर सहायता प्राप्त कर सकते हैं। निश्चित की जानी चाहिए।
स्वास्थ्य सुविधा तक पहुंच सुनिश्चित की जानी चाहिए। जैसा की केरल की सरकार द्वारा प्रवासी श्रमिकों के लिए किया गया है। केरल की सरकार ने आवाज़ योजना के तहत स्वास्थ्य बीमा का लाभ सभी श्रमिकों के लिए सुनिश्चित किया है जिसके तहत 15000 तक इनका इलाज़ मुफ्त है।
श्रमिकों के बच्चों की शिक्षा व्यवस्था भी की जानी चाहिए।
सामाजिक सुरक्षा के लिए जितनी भी योजनाएं हैं उनको गंतव्य स्थान तक पहुंच सुनिश्चित किया जाए। डिजिटल शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा दी जाए ताकि ये सभी योजनाओं का लाभ ले पाने में सक्षम हो पाएं।
एक सुझाव दिल्ली श्रमिक संगठन की तरफ से भी मिला जिसमें उन्होंने कहा कि हर एक राज्य में श्रमिकों के लिए हॉस्टल बनाए जाने चाहिए ताकि उस हॉस्टल के स्ट्रेन्थ के माध्यम से हमें एक अनुमानित आंकड़ा प्राप्त हो सकता है कि प्रतिवर्ष कितने मज़दूर इस राज्य में आए।
ग्रामीण भारत में जिस तरह कृषि दयनीय हालत में पहुंच चुकी है और उद्योगों का समुचित विकास नहीं किया जा रहा उसका एक बड़ा कारण आजीविका की तलाश में लोगों का शहरों की ओर पलायन के रूप में सामने आ रहा। रोज़ी-रोटी की तलाश में आगे भी श्रमिकों का प्रवास इसी तरह बना रहेगा तो बेहतर है कि सरकार की तरफ से कोई दीर्घकालिक उपाय किए जाने चाहिए क्यूंकि हर शहर की एक सीमा होती है।
श्वेता Youth KI Awaaz के मार्च-अप्रैल 2018 बैच की ट्रेनी हैं।
लेख के अंदर इस्तेमाल की गई तस्वीरें श्वेता ने ली है।
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