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“क्या सच में बिहार की मजबूरी है और तेजस्वी ज़रूरी है”

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पिछले दिनों बिहार में बी.पी.मंडल की जयंती मनाई गई। कई पार्टियों ने उनकी जयंती के बहाने बिहार के दलितों और पिछड़ों की राजनीती में अपनी पहचान मज़बूत करने की जद्दोजहद की। एक ओर जहां राजद से तेजस्वी यादव ने मंच संभाला और मंडल कमीशन की सारी सिफारिशों को लागू करने की मांग की तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा ने यदुवंशियों और कुशवंशियों को मिल कर खीर बनाने की कवायद की।

देखा जाए तो उपेंद्र कुशवाहा का ये बयान बिहार की राजनीति को लेकर बेहद महत्वपूर्ण है। कयास लगाए जा रहे हैं कि उपेंद्र कुशवाहा शायद एन.डी.ए. के घटक दल के रूप में खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं। ऐसा होना तब और भी लाज़मी लगता है जब खबर आती है कि रालोसपा के ज़िलाध्यक्ष की हत्या कर दी गई है। ऐसे में कुशवाहा को एक मौका मिल गया नीतीश पर हमला बोलने का। और ये तो जगजाहिर है की बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उपेंद्र कुशवाहा को नितीश कुमार कतई नहीं पसंद हैं।

कुशवाहा हमेशा से खुद को ही मुख्यमंत्री की कुर्सी का असली दावेदार समझते आए हैं। ऐसे में यदि कुशवाहा कल को महागठबंधन में शामिल हो जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि कल को उपेंद्र कुशवाहा यदि महागठबंधन में शामिल हो जाते हैं तो वो खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार समझेंगे और ऐसे में राजद नेता तेजस्वी यादव को इस पद के लिए अपनी उम्मीदवारी वापस लेनी पड़ सकती है। हालांकि राजद कभी इस बात के लिए तैयार होगा, ऐसा नहीं लगता। कुशवाहा वोट बैंक के लिए राजद अपने बने-बनाए यादव वोट बैंक को बिखेरने का जोखिम नहीं लेना चाहेगा।

एक दूसरा विकल्प ये भी है कि शायद भाजपा रालोसपा को अपने साथ रखने के लिए उपेंद्र कुशवाहा को एन.डी.ए. के सी.एम. पद का उम्मीदवार घोषित कर दे। पर ये अभी दूर की कौड़ी लगती है क्यूंकि नीतीश हरगिज ऐसा नहीं चाहेंगे। यदि ऐसा हुआ तो नीतीश कुमार एक बार फिर महागठबंधन में वापस लौटने की राह तलाश कर सकते हैं। आज जहां तेजस्वी के साथ पूरा विपक्ष एकजुट हो कर साथ खड़ा है, वहीं नीतीश के पास शायद भाजपा के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

एक ओर जहां महागठबंधन में तेजस्वी के नाम पर सी.एम. पद के उम्मीदवार के तौर पर मुहर लग चुकी है, तो वहीं दूसरी ओर हमेशा से अपने मुख्यमंत्री पद को लेकर आश्वस्त नज़र आने वाले नीतीश कुमार की कुर्सी हाथ से निकलती दिखाई दे रही है। अगस्त 2017 से यानी की जब से महागठबंधन से जदयू ने खुद को अलग किया है, तेजस्वी यादव का कद बिहार और देश की राजनीति में बढ़ा है। तेजस्वी 2013 से ही बिहार की राजनीति में सक्रिय हैं लेकिन उनको 2017 के बाद ही राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी पहचान मिलनी शुरू हुई है। ऐसे में ये देखना अहम होगा कि नीतीश कुमार ने हालिया दिनों में सरकार चलाने में जो गलतियां की हैं उसका लाभ राजद कितना उठा पाती है।

सबसे ज़रूरी बात ये है कि नीतीश कुमार को महिलाएं बहुत वोट देती हैं, पर मुज्ज़फरपुर बलात्कार कांड के बाद और आरा में एक महिला को निर्वस्त्र कर घुमाने की घटना के बाद शायद महिलाएं भी नीतीश कुमार पर भरोसा करने की ज़हमत नहीं उठाएंगी।

ऐसे समय में तेजस्वी यादव ही एकमात्र विकल्प के रूप में उभर कर सामने आते हैं। युवाओं में भी तेजस्वी के प्रति गजब का उत्साह देखने को मिल रही है। यहां तक की JNU और TISS जैसी नामी-गिरामी संस्थाओं के छात्र भी आज तेजस्वी के समर्थन में खड़े हैं तो ज़ाहिर है कि राजद की पुरानी छवि हालिया वर्षों में सुधरी है। उनका सोशल मीडिया और ट्विटर हैंडल भी युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय है। पिता लालू प्रसाद के गिरते स्वास्थ्य और कानूनी बंदिशों के बाद तेजस्वी ने जिस प्रकार राजद को संभाला है, वो वाकई काबिल-ए-तारीफ है।

पिछले दिनों एक ट्रक पर एक नारा पढ़ा-“बिहार की मजबूरी है, तेजस्वी ज़रुरी है”- ये दर्शाता है कि बिहार की राजनीती में तेजस्वी अपने पिता से भी ज़्यादा तेज़ी से उभरे हैं।

पर सबसे अहम सवाल ये है कि क्या इन बनते-बिगड़ते राजनैतिक समीकरणों में राजद अपना भविष्य तलाश कर पाएगी?

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