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2022 की इन चार फिल्मों से क्या आपने अपने पर्यावरण को बचाने का पाठ सीखा?

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सिनेमा हमारे समाज का ऐसा अभिन्न हिस्सा रहा है जो हमारे साथ एक छोटे बच्चे की तरह धीरे-धीरे बड़े होते-होते ज़िन्दगी के कई सारे अनुभवों से हमें लगातार अलग-अलग ढंग से परिचित कराते रहता है। मुद्दा कोई भी हो, सवाल किसी के खिलाफ उठाना हो, सिनेमा जगत के हर काल में कोई ना कोई ऐसा जिगर वाला मिल ही जाता है, जो 70 mm के पर्दों की रंगीन रूमानी दुनिया में भी हमारे आगे सफ़ेद सच की एक काली तस्वीर हमें झकझोड़ने वास्ते हमारे सामने रख ही देता है।

21वीं सदी की इस आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दीवानी दुनिया में जब सब कुछ करिश्माई सी लगने वाली बातें संभव होती नज़र आती है, तो ठीक उसी वक़्त जब इस वर्चुअल रियलिटी की चकाचौंध में हमारी वास्तविक दुनिया की रौशनी धुंदली पड़ने लगती है, तब इस सदी के बाइसवें साल में मेरी जानकारी में सिनेमा जगत में कई सारी फ़िल्म हमारे सामने आती है, जिसकी कोर एनर्जी ही हमें इस बात को याद दिलाने में खपती है कि कैसे हमारा समाज फाइव जी इंटरनेट, ट्रिलियन ऑफ जीडीपी एंड यूनिकॉर्न स्टार्टअप वैल्यूएशन के इस अंधी दौड़ में अपनी कोर आइडेंटिटी ही भूल चुका है

वैसे तो इंसानों की मतलबी दुनिया से तंग आकर बहुत पहले ही राजेश खन्ना की फ़िल्म हाथी मेरे साथी का गीत, "नफ़रत की दुनिया छोड़ कर प्यार की दुनिया में खुश रहना मेरे यारा" गुनगुनाते हुए डायरेक्टर साहब हमें सचेत करने की कोशिश की थी कि कैसे इंसान भगवान की बनाई इस प्यार की दुनिया में सिर्फ और सिर्फ अपने व्यापार को बढ़ाना चाह रहा है। मगर इस साल 2022 से मैं इस लेख के वास्ते चार फ़िल्म की बात करना चाहूंगा।

सबसे पहले बात RRR की

साल की शुरुआत होती है एस राजामौली द्वारा निर्देशित तेलुगु सिनेमा RRR से। RRR का मतलब है, राइज़, रोर एंड रिवोल्ट। RRR की कहानी भारत में चल रही ब्रिटिश शासन और उसके अत्याचारों के इर्द-गिर्द घूमती है। मगर आज के वक़्त के परिपेक्ष्य मे यदि फ़िल्म को समझना है तो फ़िल्म के अंत में एक गाना चलता है, उसे हमें ध्यान से सुनना होगा। खास कर के उस सीन पर हमारा ध्यान जरूर जाना चाहिए, जब फ़िल्म के डायरेक्टर ने चुपके से एक पीरियड फ़िल्म की आड़ में हमें आज के लिए एक बहुत बड़ी सीख दे दी है।

आज जब डेवलपमेंट के रेस में बड़े बड़े बिज़नेस हाउस लोकल इकोलॉजी का ख्याल रखना भूल जाते हैं, तब जब कोई प्रेशर ग्रुप इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है, तो आम भोली जनता बिना इस बात की गंभीरता को समझे बगैर एक तय प्रोपगंडा का शिकार होकर पूरी की पूरी कम्युनिटी को ही कम्युनिस्ट और अर्बन नक्सल का टैग दे देती है। जल जंगल और जमीन के बिना हम कितनी भी दिखावटी तरक्की क्यों ना कर लें, हमारा अस्तित्व इनके बिना खोखला ही रहेगा।

'कंतारा' ने बताया कि प्रकृति पर किसका हक है

दूसरी चर्चित फ़िल्म कन्नड़ सिनेमा से है। ऋषभ शेट्टी द्वारा निर्देशित फ़िल्म कांतारा आज लगभग पूरे भारत में अपनी जगह बनाने में कामयाब हुई है। किसी भी फ़िल्म का पैन इंडिया और कुछ हद तक ग्लोबल डिस्कशन बनना, बिज़नेस के लिहाज से तो अच्छा है ही, मगर लोकल कल्चर और उनके मान्यताओं के इतर जो बात मुझे इस फ़िल्म की सबसे जरूरी लगी, वो है इस फ़िल्म का हम इंसानों को एक बार फिर से सचेत करने की कोशिश कि हमारे आस पास जो भी प्राकृतिक संसाधन हैं, उनका दुरुपयोग करने का हमारा कोई हक़ नहीं बनता है। हम अक्सर इस भुलावे में रहते हैं कि आसानी से मिलने वाले नेचुरल प्रोडक्ट्स पर सिर्फ मशीन के गुलाम बन चुके इंसानों का ही अधिकार है।

फ़िल्म के अंत में एक गीत बजता है, जब फ़िल्म का हीरो शिवा, देव रूप में आकर गांव वालों को समझाता है कि प्रकृति में पाई जाने वाली हर चीज़ पर माँ प्रकृति के सारे जीव जंतुओं का हक़ है। फ़िल्म हमें समझाने की कोशिश करती है कि एवोल्यूशन के इस लाखों साल की यात्रा में हम इंसानों को जो सबसे अव्वल होने का जो दंभ हो गया है, यह हमारे लिए कितना घातक साबित हो सकता है। प्रकृति की अदालत में सब बराबर होते हैं। हम सभी प्राणी एक दूसरे पर निर्भर हैं, और एक दूसरे के लिए बेहद जरूरी हैं। खासकर कि हम इंसानों के अस्तित्व के लिए प्रकृति में संतुलन होना उतना ही जरूरी है जितना की हमारा बिना रुके निरंतर साँसे लेना।

'भेड़िया' सिर्फ एक कॉमेडी नहीं

तीसरी फ़िल्म हिंदी सिनेमा से है। अमर कौशिक द्वारा डिरेक्टेड इस फ़िल्म का नाम है भेड़िया। वैसे तो यह फ़िल्म एक हॉरर कॉमेडी के जॉनर की है, मगर यहाँ फ़िल्म के डायरेक्टर हमें हँसाते हँसाते लाइफ का सबसे गूढ़ ज्ञान दे जाते हैं।

फ़िल्म मानव और प्रकृति के बीच हो रहे ख़राब रिश्तों के बीच सस्टेनेबल डेवेलपमेंट की उम्मीद तलाशती है। फ़िल्म में लीड रोल में वरुण धवन को फ़िल्म में बना उसका चचेरा भाई यह समझाता है कि प्रकृति है तो ही प्रगति है।

वैसे तो आम जीवन में हम किसी को भेड़िया कह दें, तो यह शब्द किसी इंसान के लिए सभ्य नहीं माना गया है। मगर इस फ़िल्म में नायक का क़िरदार एक भेड़िया ही निभाता है। यहाँ पर फिर से मुझे फ़िल्म हाथी मेरे साथी के उस गीत का बोल याद आ रहा है कि,

जब जानवर कोई इंसान को मारे  

कहते हैं दुनिया में वहशी उसे सारे

मगर हमें यहाँ इस मिथ्या को भंग करने की जरूरत है कि सत्य के लिए सत्वगुणी होना ही जरूरी होता है। हमारे अंदर इंसान और जानवर दोनों पाए जाते हैं। प्रकृति के संतुलन के लिए हमारे अंदर दोनों ही गुणों का होना आवश्यक हो जाता है।

'अवतार' के सीक्वल ने हमें चेताया

चौथी फ़िल्म हॉलीवुड से है। डायरेक्टर जेम्स कैमरून द्वारा निर्देशित अवतार अब किसी परिचय की मोहताज़ नहीं रह गई है। साल 2022 के अंत में फ़िल्म अवतार का दूसरा पार्ट हम आम लोगों को यह चेतावनी देता जाता है कि यदि हम अब भी नहीं रुके तो पृथ्वी का अंत इस सदी के अंत तक तय है।

जलवायु परिवर्तन आज के समय की ऐसी भयानक सच्चाई है, जिसे हम कितनी ही बड़ी चाहरदीवारी से ढकने की कोशिश क्यों ना कर लें, वो हवा की तरह हमारे आगे यह बताने आ जाता है कि इंसानों के कारण पिछले 200 सालों में विज्ञान के अवैज्ञानिक तरीकों के पागलपन के कारण हमारी आवो हवा बद से बदतर होती जा रही है।

हाल ही में जब पूरी दुनिया कोविड 19 के प्रकोप से त्राहि त्राहि कर रही थी तो हम इंसान बड़े ही मतलबी होकर अपने अपने भगवान से यह शिकायत कर रहे थे कि भगवान हमारी सुन क्यों नहीं रहा है। कैसे सुनेंगे भगवान जब माँ प्रकृति के लिए उसके सारे बच्चे बराबर होते हैं?

जब 2019 में अमेज़न रेन फॉरेस्ट के जंगल धू धू कर जल रहे थें, तो हममें से कितने लोग सड़कों पर उतर कर इसके ख़िलाफ़ अपने अपने संसद की ओर रूख किये थे? 2009 में ही जब 21वीं सदी की शुरुआत ही हुई थी, तभी अवतार मूवी के पहले पार्ट में ही एक डायलाग हम इंसानों को वह जरूरी पाठ पढ़ाता है, जो कि हमारे सेल्फ सेंटर्ड स्कूल एडुकेशन में मिसिंग है।

फ़िल्म अवतार की नायिका नायक से कहती है कि माँ एवा (पैंडोरा ग्रह के निवासियों की कुल माता) सिर्फ हमारे लिए हमें बचाने नहीं आएंगी। प्रकृति सिर्फ और सिर्फ संतुलन चाहती है, जहाँ इंसानी जान की कीमत किसी जीव जंतु के जान से ज्यादा कीमती नहीं होती है।

मगर कोरोना वायरस के डिफरेंट वैरिएंट की तरह ही हम इंसानों की चमड़ी भी इतनी जिद्दी हो गई है, कि जबतक क्लाइमेट चेंज के बढ़ते प्रकोप के कारण हमारी खुद की चमड़ी स्किन कैंसर रोग से गलने नहीं लगेगी, तबतक हमारी मोटी बुद्धि में यह बात जाएगी ही नहीं कि सिर्फ स्कूल एग्जामिनेशन में पास करने के लिए और यूपीएससी के एस्से पेपर में स्कोर लाने के लिए एनवायर्नमेंटल साइंस का ज्ञान होना काफ़ी नहीं रह गया है। अब बात हमारे सर्वाइवल की आ चुकी है, जब हर साल प्रकृति हमें सचेत कर यह समझाना चाहती है कि कैसे हमारी खुद के अस्तित्व के वास्ते ही सही, हमें अब इम्पोर्टेंस ऑफ को एक्सीस्टेंस को अपने लाइफस्टाइल का हिस्सा बनाना ही होगा।

अगर वक़्त रहते हमने अपने वक़्त को नहीं बदला तो बलराज साहनी के वक़्त फ़िल्म का एक गाना मुझे याद आ रहा है, जब चारों तरफ़ बर्बादी होगी और दूर किसी वीसीआर में यह गीत बजता होगा -

आदमी को चाहिये

वक़्त से डर कर रहे

कौन जाने किस घड़ी

वक़्त का बदले मिजाज़

अगर हम चाहते हैं कि मानव के विकास के दस लाख सालों का इतिहास भविष्य में हमारे लालच की वजह से अतीत का महज एक हिस्सा ना बन जाये, तो हमें बिना डरे सच के लिए "राइज़" यानी की घरों से उठ कर निकलना होगा, "रोर" यानी कि सच के लिए बोलना होगा, और "रिवोल्ट", यानी की सच के लिए जरूरत पड़ने पर बगावत भी करनी होगी।


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