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‘मुझे आदिवासी युवाओं को कला के क्षेत्र में भविष्य बनाने के लिए मेंटरिंग करनी है’

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(संपादक की तरफ से: ये कहानी स्पर्श चौधरी द्वारा लिखी गई है ,जैसे उन्हें कौशल्या ने बताई )

मेरा नाम कौशल्या धुर्वे है और सिंहपुर पोस्ट मानागाँव,बाबई (होशंगाबाद ) की रहने वाली हूँ। मैं गोंड आदिवासी समुदाय से तालुक रखती हूँ।मेरे परिवार में हम तीन भाई बहनें हैं  जिसमें माँ ही सब्ज़ी बेचकर घर चलाती हैं, हालाँकि अब मेरी शादी हो चुकी है। मैं वर्तमान में बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय भोपाल से शास्त्रीय संगीत में पीएचडी कर रही हूँ। संगीत का रियाज़ मुझे सुकून देता है और किसी दिन न करूँ तो बेचैनियां! तो ये कहानी है मेरी,इस कला में करियर बनाने की। 

पांच बरस की उम्र में ही मम्मी ने मेरा और फिर बाद में दीदी का दाखिला आरबीसी शासकीय छात्रावास में करवा दिया था। जहाँ पर अनुसूचित जनजाति की लड़कियां  आवासीय परिसर में रहती हैं ,पढ़ती हैं और सीखती हैं। बाद में हालाँकि हम दोनों एक अन्य शासकीय छात्रावास में शिफ्ट हो गए थे। भुखमरी और शराब के लती पिता के व्यवहार,तन ढकने को कपड़े  भी गाँव के पंडित से उधार  लेने के बीच , माँ को लगा यहाँ तो हमारा कोई भविष्य नहीं है। अगर माँ यह नहीं करती तो शायद मेरी ज़िन्दगी आज मुझे यह सब सुखद नहीं दिखा पाती! 

कला से प्यार का नया सफर 

मुझे याद है कि हॉस्टल में अच्छा खाना ,फल , अच्छे कपडे और रोज़मर्रा की चीज़ें जो हमारे लिए घर पर असंभव थीं , वो मिल जाया करती थीं।  और रविवार को बहुत सारी गतिविधियां होती थीं। मुझे कला में बेहद रुझान है यह मैंने वहां ही जाना। वहाँ ही मैंने जो मेहँदी लगाना सीखा , उससे ग्वालियर के कॉलेज के दिनों में बड़े अदब से खर्चा निकाला।  ब्यूटी पार्लर का कोर्स हो , पाककला हो , सिलाई बुनाई कढ़ाई हो या फिर गाना सब यहीं सीखा । मैंने कराटे और योग के बड़े बड़े आसन लगाना भी यहीं सीखा।योग में तो मैं राष्ट्रीय चैंपियनशिप तक पहुंची।  यह सब संभव हुआ क्यूंकि   मैंने  नयी चीज़ों  के लिए कोशिश करने और सीखने का ये रवैय्या और ज़िद्दीपन हमेशा रखा है। नतीजा यह रहा कि स्कूल में कला के जितने मेडल्स होते थे सब मैं ही जीत ले जाती थी।  शायद इसीलिये मुझे शालानायक भी बनाया गया। तब किसी ने कहा तुम सबसे अच्छा तो गाती हो, इसके बारे में सोचो कुछ आगे  ! फिर हुआ यूँ कि आगे जाकर भारत कॉलिंग के समर कैंप में मुझे पता चला कि राजा मानसिंह विश्वविद्यालय ग्वालियर में संगीत की उच्च शिक्षा होती है। तो फिर भारत कॉलिंग  के सहयोग से मैंने फॉर्म भरा और आगे की प्रक्रिया पूरी की। 

गौरतलब हो कि संगीत की स्नातक स्तरीय उच्च शिक्षा बेहद अनुशासन और मेहनत मांगती है।  उसमें दो तरह के कोर्स होते हैं।  बी.ए संगीत और बी. म्यूज़ या बैचलर ऑफ़ परफार्मिंग आर्ट्स।  दरअसल दूसरा वाला व्यावहारिक अधिक है और पहला वाला सैद्धांतिक। शायद इसीलिए बी.म्यूज़ में महज 11 और बी. ए  में 50 लोग पढ़ते थे। बी.पी.ए में जहाँ एक ओर थिअरी और प्रैक्टिकल दोनों ज़रूरी थे , वहीं ताल की तकनीकी समझ भी बेहतर होनी ज़रूरी थी।  मैं दिन रात ज़्यादा से ज़्यादा सीखने पर ध्यान देती थी। हमें तबला,तानपुरा आदि संगत के सभी वाद्ययंत्रों को भी सीखना होता था। हालाँकि मास्टर्स तक आते आते बहुत कम संख्या(शायद तीन -चार ) टिक पाती थी। शायद इसीलिए भी कि कठिन था और शायद इसलिए भी कि नौकरी के इस दिशा में अवसर हमारे देश में कम हैं।  

मुश्किलें हैं पर मौके भी

मुझे खुद शायद हमेशा अच्छे सीनियर्स और दोस्तों का साथ मिला ,नहीं तो मेरे पास न तो इंटरनेट था और न ही किताबें। न ही मुझे नेट की परीक्षा क्या होती है यह पता था। ‘ अभिगम ‘ शब्द का तात्पर्य क्या होता है - तमाम उधार ली गयी किताबों के दम पर लगभग एक साल तक मेहनत करने के बाद यह समझा था मैंने।  ऐसे ही धीरे-धीरे करके कुछ असफल होकर भी मैंने सीखना ज़ारी रखा।  मैंने सोच लिया था कि मैं हारूंगी नहीं। वैसे ही जब  माँ जो मेरे स्नातक के तो पक्ष में थीं पर मास्टर्स के नहीं और तब मैं घर से  बिना बताये मास्टर्स के लिए आ गयी थी। मैं आपको बता देना चाहती हूँ कि संगीत की पढ़ाई बहुत ही कम पैसों पर की जा सकती है और आप साथ में अपने खर्चे निकालने के लिए भी कोशिशें कर सकते हैं।  खासकर कि अनुसूचित वर्गों , अन्य पिछड़ा वर्गों,बालिकाओं के लिए तमाम सरकारी योजनाएं हैं।  कस्तूरबा बालिका छात्रावास , एकलव्य हॉस्टल आदि और अन्य छात्रवृत्तियां भी। आप उसका भरपूर लाभ उठाइये।  

मैं आपको बताना चाहती हूँ कि पिछले साल ही मेरा चयन पीएचडी के  लिए हुआ है।  मैंने एक स्कूल में पढ़ाया भी है जहाँ मैं थिअरी क्लासेज लिया करती थी. हालाँकि फ़िलहाल कोर्स वर्क के चलते मैं व्यस्त हो गयी हूँ। वैसे मुझे अन्य शोधार्थियों की तरह एक सम्मानजनक स्टायपेंड भी मिलता है जो मुझे आत्मनिर्भरता देता है।  हालाँकि मेरे पति पुलिस सेवा में हैं व मेरे बराबर के साथी हैं ,पर आत्मनिर्भरता भी एक आनंद है  । वैसे वो कहते हैं कि शास्त्रीय संगीत कभी मत छोड़ना ,हो सकता है अन्य संगीत में पैसा अच्छा हो पर इस में जो अदब है और जो मेहनत है ,वो कहीं नहीं है।

औरों को पंख देने का सुकून   

मैं बताना चाहती हूँ कि मेरे और दीदी के आगे पढ़ने के कारण हमारे गाँव की आदिवासी लगभग 12-13 लड़कियां पोस्टग्रेजुएट तक पढ़ सकी हैं और मुझे बहुत ख़ुशी है कि इन सालों में  मैं उनके दाखिले में प्रेरणा और मदद दोनों बन पायी हूँ ! मैं आने वाले सालों में बच्चों को (खासकर के हमारे समुदाय के) कला के क्षेत्र में आगे बढ़ने में मदद करना चाहती हूँ।  आप जानते होंगे कि आदिवासी समुदाय तमाम लोक कलाओं में जीता और पनपता है। ऐसे में हमारे बच्चे अगर उसी क्षेत्र में आगे बढ़ें तो न सिर्फ शानदार कर पाएंगे बल्कि उन कलाओं के संरक्षण में भी मदद कर पाएंगे।  क्या पता , बालाघाट के प्रोफेसर ’ सहदेव मरकाम’ जो बैगा-भारिया -गोंड पर शोध कर चुके हैं , उनके जैसे और कितनी प्रतिभाएं हमारे बीच हों ! 

इस क्षेत्र में वैसे उम्मीदें बहुत हैं मसलन आने वाले समय में नयी शिक्षा नीति में कला के लिए अनिवार्य शिक्षक होने की ज़रूरत के कारण  हम और अधिक रिक्तियों की अपेक्षा कर सकते हैं। हालाँकि हमें संगीत की शिक्षा को शिक्षा के अन्य रूपों की  तरह लेने की ज़रूरत भी  है। सीखते रहने की ज़रूरत भी है। किसी बड़े लक्ष्य के रास्ते में मिलने वाले मौकों को भी भुनाने की ज़रूरत है। हम अक्सर यह शिकायतें करते हैं कि ये संसाधन नहीं हैं, वो संसाधन नहीं हैं। पर दिए गए मौकों को कितना भुनाते हैं,ये मायने रखता है ! 


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