

साल 2016 में आई डायरेक्टर सौमेंद्र पैढी की फिल्म ‘दूरंतो’ को लोग अब ‘बुधिया सिंह: बॉर्न टु रन' के नाम से जानते हैं। दरसल आप अगर इस फ़िल्म को सेंसर बोर्ड से मिले सर्टिफिकेट को देखेंगे तो उन पर भी फ़िल्म का नाम ‘दुरंतो’ ही है, जिसे कमर्शियल रीलिज के लिए टाइटल बदल दिया गया था ताकि बॉक्स ऑफिस पर ‘बुधिया’ नाम का ज़्यादा असर पड़े। फ़िल्म की पूरी कहानी एक बच्चे की इर्द-गिर्द घूमती है। ये फ़िल्म उड़ीसा के एक बच्चे पर फ़िल्माया गया है, जो साल 2006 में दुनिया के ध्यान को अपने ओर खींचा था। इसे साल 2016 के होने वाले रियो ऑलम्पिक में गोल्ड मेडल विजेता के प्रबल दावेदार रूप में भी देख रहा था, जिन्होंने अपने 5 साल के उम्र में 48 मैराथन को पूरा करने का रिकार्ड अपने नाम कर लिया था।
कौन हैं बुधिया सिंह
अजीब बात ये है कि जिसे भारत के तरफ से 2016 के होने वाले रियो ओलिंपिक में गोल्ड मेडल के लिए प्रबल दावेदार के रूप में देखा जा रहा था, वो आज सिस्टम का शिकार होकर एक तरह से गुमनामी की जिंदगी जी रहा है। ‘बुधिया’ की दो बहन और उसकी मां भुवनेश्वर की सालियासाही झोपड़पट्टी में रहती हैं। बुधिया के लिए मैराथन हमेशा के लिए बंद हो गया है। देशवासियों ने भी उनके बारे में ये सोचना छोड़ दिया है कि वो ऑलंपिक में भारत के लिए मैराथन में गोल्ड मेडल लाएगा। सच तो ये है कि अब ‘बुधिया सिंह’ ने भी मैराथन के बारे में सोचना छोड़ दिया है। फिलहाल वो दिल्ली से ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहा है। बुधिया की बड़ी बहन रश्मि का कहना है कि मेरे भाई के साथ कोच से लेकर उड़ीसा सरकार तक सभी ने ग़लत व्यवहार किया। वो बड़ा धावक बन सकता था लेकिन उसे शिकार बनाकर भुला दिया गया। आज तो कोई पूछने वाला भी नहीं है। बुधिया सिंह के लिए अब मैराथन सपने में हिस्सा लेने जैसा हो गया है, जो अब अपने अतीत के बारे में बात तक करना पसंद नहीं करता है। अपने पुराने दिनों के झरोखों में भी नहीं जाना चाहता है।
क्या है फ़िल्म की कहानी
करीब चार वर्ष के बुधिया सिंह (मास्टर मयूर) को उसकी माँ ने बचपन में ही कुछ पैसों के लिए बेच दिया था जिसे जूडो सेंटर चला रहे बिरंची दास ने अपने देखरेख में ले लिया था। एक दिन सेंटर में बुधिया ने सेंटर में रह रहे दूसरे बच्चे को गाली दे दी तो बिरंची दास ने बुधिया से सेंटर का तब तक चक्कर लगाने के लिए कहा जब तक वो खुद उसे मना न कर दे। ऐसे में ये कहकर बिरंची दास अपने दूसरे कामों में लग जाता है और अपने पत्नी के साथ बाजार चला जाता है। जब वो घंटों बाद लौटता है तो देखता है कि ‘बुधिया’ वहीं पर घंटों से दौड़ रहा है। इसको देखकर बिरंची दास हतप्रभ थे उन्होंने महसूस किया कि बुधिया में दौड़ने की अद्भुत क्षमता है। ये कुछ बड़ा कर सकता है। यहीं से बिरंची मैराथन के बारे में ‘बुधिया’ के लिए सोचना शुरू कर देते हैं और शुरू होती है उनकी ख़ास ट्रेनिंग।
कोच बिरंची दास का कमाल
बिरंची दास ने बुधिया को इस तरह से निखारा की उन्होंने अपने करीब 5 साल के उम्र में ही 65 किलोमीटर की दूरी को 7 घंटे 2 मिनट में पूरा कर दुनिया को सोचने के लिए मज़बूर कर लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। उनके नाम 48 मैराथन दौड़ का रिकार्ड भी दर्ज है। कोच बिरंची दास उसे 2016 में होने वाले ऑलम्पिक के लिए तैयार कर रहे थे, जब उनकी हत्या साल 2008 में कर दी गई। इसके पीछे क्या कारण था? इसके ज़वाब को आज तक खोजा नहीं जा सका है। लेकिन इससे पहले ही बुधिया और बिरंची के बढ़ते सुनहरे भविष्य के राहों में तरह- तरह की कीलें बिछा दी गई थी।
कहानी जो सीधे दर्शकों के दिलों को छू जाती है
इस देश की सच्चाई है कि आजतक यहां खेल संघ ने किसी उभरते सितारे को नहीं तराशा है। जो अपने बल पर खुद को तराश पाए उन्हीं की जय-जयकार हुई है। हाँ खेल संघ ने अपने अंदर चल रहे राजनीति के चक्कर में कई देश के उभरते सितारे के भविष्य को ज़रूर खराब किया है। बुधिया की वही कहानी है। देश के उभरते सितारे को सिस्टम अपना शिकार बना लेती है। जो बचपन में सितारे थे वो अभी गुमनामी जिंदगी जीने के लिए मज़बूर है। फिल्म डायरेक्टर सौमेंद्र जो एक लेखक भी हैं स्क्रिप्ट और फिल्मांकन दोनों के साथ न्याय किया है। उन्होंने न तो भावुकता पर बहुत जोर दिया और न फिल्मी ड्रामा रचने की कोशिश की है। उनकी बात सीधे दर्शक के दिल तक पहुंचती है। फिल्म में नन्हें मयूर ने सहजता से ‘बुधिया’ के जूतों में अपने पैर डाले और किरदार के साथ उड़ान भरी है। वहीं मनोज वाजपेयी ने एक बार फिर खूबसूरती से अपना रोल ‘बिरंची दास’ के रूप निभाया है जो बॉलीवुड में बेहतरीन अदाकारी के लिए जाने जाते हैं। इस फ़िल्म में मनोज वाजपेयी ने बिरंची दास के रूप में अपने आप को बहुत अच्छा प्रस्तुत किया है।
क्यों देखनी चाहिए यह फिल्म
इस फ़िल्म को आप इसलिए भी देखें ताकि आपको पता चल सके बुधिया और बिरंची के चल रही खूबसूरत सी जिंदगी में कैसे अफसर, नेता और समाज के कुछ लोग दखल देते हैं। बुधिया जैसे छोटे पौधे जो आगे चलकर हिन्दुस्तान को फलों से लादने वाला था उसे कैसे पीछे छोड़ दिया जाता है। आप फ़िल्म देखने के बाद इस बात पर सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि देश पहले तो उभरते सितारे को ज़रूर पूजता है, फिर उनके करियर को ख़त्म करने में भी देर नहीं लगाता है। फ़िल्म का सबसे खूबसूरत पहलू ये है कि इसे जस के तस प्रस्तुत किया गया है।