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“पढ़े-लिखे होने का मतलब सिर्फ अंग्रेज़ी बोलना और अच्छा दिखना नहीं है”

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वो भी क्या दिन थे जब इन्सानों और महान व्यक्तियों मे कोई अंतर नहीं होता था। हर इन्सान अपने आप में एक ज्ञानी जीव था। किसी भी वस्तु का ज्ञान वह दे सकता था व जिंदगी को जीना सिखा सकता था। मैं बात कर रहा हूं उस दौर कि जब साधु संत सिर्फ नाम के ही नहीं, बल्कि असलियत में अपने कर्मों से महान होते थे। वह जानते थे कि इन्सान कहाँ-कहाँ भटक सकता है और कहाँ-कहाँ अपनी मंज़िल भूल सकता है। उस दौर में ही जिंदगी का असली मकसद दिख जाता था। तब ना तो किसी को अपने ज्ञान पर घमंड होता था और ना ही किसी अज्ञानी को अपनी अज्ञानता पर शर्म।

शिक्षा की बदलती अहमियत

असल में यह दौर ही एक तरह से शुरुआत थी शिक्षा को प्राप्त करने की और जीवन में अपने मकसद ढूंढने की। लेकिन आज के ज़माने में ना तो कोई इतना ज्ञानी रहा है और ना ही कोई इस ज्ञान को प्राप्त करने की कोशिश करता है। ये इंसान का ही अपना दोष है जो उसे ना पढ़ने व अनपढ़ बनाने पर मजबूर करता है। मजबूरी में भी वह इंसान कोई विचार नहीं कर सकता क्योंकि उसके अनपढ़ होने का सारा दोष सिर्फ और सिर्फ उसकी नासमझता का है। इस दौर में भी कोई इंसान इतना बेवकूफ नहीं है जिसे सही या गलत के बीच का फर्क नहीं मालूम हो। लेकिन इसके बावजूद भी वह सिर्फ अपने स्वार्थ और नादानी में शिक्षा का अपमान करते हैं और पूरी ज़िन्दगी अपने ऊपर अनपढ़ होने का ठप्पा लगवा कर घूमते हैं।

मातृभाषा नहीं जानती आज की पीढ़ी

इस बात से मैं ताज्जुब नहीं होता कि आज के ज़माने के बच्चे अपनी मातृभाषा तक को नहीं जानते हैं। जानेंगे भी क्यों? इससे उन्हें क्या ही फायदा होगा? लेकिन दूर किसी देश की भाषा बोलने से व सीखने से तो मानो उसे पढ़े-लिखे होने का खिताब मिल जाएगा। सिर्फ एक मिनट सोचकर देखिए, इससे हमारी संस्कृति को कितनी ठेस पहुँचती होगी। आने वाली पीढ़ी भी अगर इन नक्शे कदमों पर चली है तो वो दिन दूर नहीं जब हिन्दुस्तान की आबादी पढ़ी-लिखी तो होगी, लेकिन सिर्फ बाहरी तथ्यों तक। समझने वाली बात यह है कि पढ़े लिखे होने का मतलब सिर्फ अंग्रेजी बोलना व अच्छा दिखना ही नहीं है। बल्कि इतना ज्ञान पाना है जिससे आप अपने जिंदगी को सफल बना सके।

असल शिक्षा से ज्यादा बाहरी दिखावे पर ज़ोर

बातूनी तरीकों से ही काम सफल बना लेना एक बहुत अच्छा प्रमाण है पढ़ा लिखा होने का। 'पैरों में जूते हों ना हो, हाथ में किताब जरूर होनी चाहिए।' मेरा ऐसा लिखने का क्या मतलब है कि आज कल विद्यार्थी स्कूल-कॉलेज में सिर्फ अच्छा दिखना पसंद करते हैं। वो भी बाहरी रूप से। अंदर से उस ज्ञान को प्राप्त नहीं करना चाहते। हमारा इतिहास नहीं पढ़ना चाहते। जीवन का महत्व नहीं समझना चाहते। इस लेख के माध्यम से मैं बता देना चाहता हूं कि भले ही पैरों में आप जूते नहीं पहन सकते, लेकिन हाथ में अगर एक किताब भी आप रखे और पढ़े तो जीवन का महत्व आप समझ सकते हैं। हर किताब अपने आप में ही एक ज्ञान का भण्डार है, जो आपकी अज्ञानता को खत्म कर सकती है। ये सिर्फ आपकी नियत बता सकती है कि आप इसे कितना समय और महत्व उस किताब को समझने में लगाते हैं।

अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि इस देश के हर एक इंसान को अपनी जिंदगी को समझने के लिए शिक्षा का महत्व समझना होगा वरना एक दिन इस देश में अनपढ़ता की वो आग लगेगी जिसे बुझाते-बुझाते बहुत लोगों की कमर टूट जाएगी। एक अनपढ़ इंसान इस धरती पर सिर्फ एक बोझ है, जो खुद ही अपनी बेवकूफी को अपनी असफलता का कारण बनाता है। सोचिएगा ज़रूर।


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