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कौन कहता है लड़कियों के साथ भेदभाव हो रहा है?

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नासिरूद्दीन:

ये लड़का-लड़की, महिला-पुरुष, बराबरी-गैरबराबरी, अधिकार- ये बातें हैं क्या? क्यों हैं? क्या मर्द होने के नाते हमें इन्हें जानना, समझना ज़रूरी है? यह टिप्पणियाँ ऐसे ही स़फर पर चलने की एक कोशिश है। हाँ, स़फर अच्छा लगे तो दूसरे साथी मर्दों को भी ज़रूर बताइएगा। अगर कोशिश करें तो यह हम लड़कों / मर्दों की खुशहाली का सफर बन सकता है।  वरिष्‍ठ पत्रकार नासिरूद्दीन हमें तीन कड़ियों के इस सफर पर ले जा रहे हैं।

भाग -1

जनाब, क्या हम मर्दों को लगता है कि लड़कियों के हालात में बदलाव आया है? ज़्यादातर मर्दों को तो ऐसा लगता है। कुछ महिलाएँ भी ऐसा मानती हैं। वे बताते/बताती हैं कि हर शहर में पढ़ने वाली लड़कियों की तादाद देखिए। पटना, लखनऊ, रांची, भागलपुर, मुजफ्फरपुर, मेरठ, गोरखपुर या दिल्ली के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली लड़कियाँ देखिए। …देखिए तो अब लड़कियाँ हवाई जहाज़ चला रही हैं। … चाँद पर जा रही हैं।…बड़ी कम्पनियाँ चला रही हैं। …तारे तोड़ रही हैं। …यह कर रही हैं, वह कर रही हैं।
जी हाँ, बात तो सही है। काफी बदलाव आया है। कई मामलों में तो ज़मीन-आसमान का फ़र्क दिख रहा है।
लड़कियाँ यह सब कर रही हैं। यानी पहले नहीं कर पा रही थीं या उन्हें करने नहीं दिया जा रहा था या करने का मौक़ा नहीं मिल रहा था।
लेकिन क्या यह इस बात निशानदेही है कि अब लड़कियों/महिलाओं को हमारे घर-परिवार और समाज में बराबरी का दर्ज़ा और हक़ मिल गया है? लड़का-लड़की में अब भेदभाव नहीं होता है? महाशय, कुछ जिज्ञासाएँ है।

अरे महाशय, आप नाराज़ मत होइए। आपको क्या लग रहा है ये सवाल अमरीका से आएँ हैं? न… न!
हाँ, मालूम है हम 21वीं सदी में रह रहे हैं। सभ्य समाज में रह रहे हैं। लोकतांत्रिक देश के बाशिंदा हैं। यहाँ सभी बराबर हैं। जाति, धर्म, भाषा, लिंग, धन के आधार पर यहाँ भेदभाव नहीं किया जा सकता है। बस इसलिए कुछ सवाल दिमाग में कुलबुलाने लगे। हालाँकि कुछ लोग कहते हैं कि स्त्रियों की हालत अब भी ख़राब है। हाथ कंगन को आरसी क्या? आइए न, हम इस बात को यहीं ख़त्म कर लें। ठीक रहेगा न!

प्राचीन भारत में स्‍त्री स्‍वर
अमरीका-इंग्लैंड के बारे में हम यहाँ बात नहीं करेंगे। हम अपनी जड़ में तलाश करते हैं। इतिहास पर नज़र डालते हैं महाशय। देखते हैं भारत में क्या कभी स्त्रियों की पीड़ा को स्वर मिले भी हैं? या इरान-तुरान की बात ही यहाँ की जाती है?
जिस इतिहास के बारे में हमें पता है, उसके मुताबिक कई स्त्रियों ने गौतम बुद्ध से दीक्षा ली थी। इन स्त्रियों को थेरी कहा गया। इन्होंने स्त्री होने के नाते जो पीड़ा घर-परिवार में झेली थी, उसे लिखा। इस तरह यह देश की सबसे पुरानी स्त्री विमर्श की गाथा है।
महाशय आप सोच रहे होंगे, यह क्या बात हो रही है?

जनाब कहने का गरज बहुत सीधा-सपाट है। बुद्ध यानी ईसा से पाँच सौ साल पहले यानी अब से करीब ढाई हज़ार साल पहले की बात है। पढ़ेंगे तो आप ख़ुद ब ख़ुद अंदाज़ा लगा लेंगे बुद्ध के वक़्त महिलाओं की जो हालत थी, उससे वे आज कितनी आगे चली आई हैं? ठीक रहेगा न!
एक बौद्ध भिक्षुणी थीं मुक्ता। देखिए वह क्या कह रही हैं-

मैं अच्छी तरह मुक्त हो गई!
अच्छी विमुक्त हो गई हूँ!
तीन टेढ़ी चीज़ों से मैं अच्छी तरह विमुक्त हो गई हूँ!
ओखली से, मूसल से और अपने कुबड़े स्वामी से
मैं अच्छी तरह मुक्त हो गई!
(किंतु इससे भी एक और महान मुक्ति मुझे मिली)
मैं आज जरा और मरण से भी मुक्त हो गई!
मेरी संसार तृष्णा ही समाप्त हो गई!
एक और बौद्ध भिक्षुणी हैं, सुमंगलमाता। उनकी रचना है,
अहो! मैं मुक्त नारी!
मेरी मुक्ति कितनी धन्य है!
पहले मैं मूसल लेकर धान कूटा करती थी, आज उससे मुक्त हुई!
मेरी दरिद्रावस्था के वे छोटे-छोटे (खाना पकाने के) बर्तन!
जिनके बीच में मैं मैली-कुचैली बैठती थी,
और मेरा निर्लज्ज पति मुझे उन छातों से तुच्छ समझता था, जिन्हें वह अपनी जीविका के लिए बनाता था।।
अब उस जीवन की आसक्तियों
और मलों को मैंने छोड़ दिया!
मैं आज वृक्ष-मूलों में ध्यान करती हुई
जीवन-यापन करती हूँ!
अहो! मैं कितनी सुखी हूँ!
मैं कितने सुख से ध्यान करती हूँ।।
(थेरी गाथा में संकलित)

आप कहेंगे, जनाब कहाँ बुद्ध का वक़्त और कहाँ 21वीं सदी! न वह ज़माना रहा, न वह व़क्त। है न। ज़ाहिर है ढाई हज़ार साल बाद स्त्रियों की हालत भी वैसी नहीं रहनी चाहिए।
पर सिर्फ़ तीन सवाल हैं जनाब…

  • ओखली, मूसल यानी घर के काम-काज में ही जीवन होम कर देने से क्या आज की महिलाएँ मुक्त हो गईं?
  • क्या 21वीं सदी के पतियों ने उसे अपने सामान से कमतर समझना ख़त्म कर दिया है?
  • क्या आज की सभी स्त्री ”अहो मैं कितनी सुखी हूँ”- का गान करती हैं?

जवाब का इंतज़ार है जनाब। मुझे नहीं देना चाहते। कोई बात नहीं ख़ुद को तो जवाब देंगे? तो अपने को ही दीजिए।

बेटियों की चाहत
महाशय, बुद्ध कुछ ज़्यादा पुराने लगते हैं। हैं न? उन्हें फिलहाल छोड़ा जाए! उनके बाद के ज़माने की बात करते हैं। एक बड़ा रोचक गीत है।

”जही दिन हे अम्मा, भइया के जनमवाँ
सोने छुरी कटइले नार हो
जही दिन अहे अम्मा, खुरपी न भेंटे
झिटकी कटइले नार हो”
(हे माँ, जब मेरे भाई का जन्म हुआ था तब तुमने सोने की छुरी से नार काटा। जिस दिन मेरा जन्म हुआ हे मेरी माँ, उस दिन तुमने सबसे पहले खुरपी तलाश करवाई। जब खुरपी नहीं मिली तो तुमने झिटक कर नार निकाल दिया।)

एक और देखिए-
”…जो मैं जानती धिया मोरे होइहें
खाती मैं मिर्चा जल्लाद
मिर्चा के झार धिया मरि जाति
बिच्छी साजरिया उतीक डरती
हरि जी से रहती रिसाय”
(अगर मैं यह जानती कि मेरे कोख से बेटी जन्म लेने वाली है तो मैं मिर्चा खा लेती ताकि उसके झार से बेटी की मौत हो जाती। यही नहीं अगर मुझे ऐसा भान होता तो मैं अपने साजन का गुस्सा सह लेती लेकिन उनके पास नहीं जाती।)

जनाब ये गीत पढ़ कर भी आपको लग रहा होगा कि यह भी किस ज़माने की बात की जा रही है। है न!
अगर आपको ऐसा लग रहा है तो बहुत अच्छी बात है लेकिन कुछ यहां भी छोटे-छोटे कुछ सवाल हैं। जवाब देंगे न!

  • क्या हर घर-ख़ानदान में बेटियों के पैदा होने पर अब ख़ुशी मनाई जाने लगी है?
  • क्या बेटी पैदा होने पर अब कोई माँ-बाप, दादा-दादी दुखी नहीं होता?
  • क्या सभी बेटियों की दुआएँ माँग रहे हैं?
  • क्या बेटी पैदा होने के लिए मन्नतें माँगी जाने लगी हैं?
  • क्या अब कोई भी बेटी को पैदा होने से पहले या बाद में गायब नहीं कर रहा?

महाशय जवाब दीजिए न। मुझे नहीं देना चाहते। कोई बात नहीं। ख़ुद को तो जवाब देंगे? चलिए अपने को ही दीजिए।

अगले भाग में जारी…

(नासिरूद्दीन ने ‘लड़कों की खुशहाली का शर्तिया नुस्‍खा’ नाम की एक सीरिज़ लिखी है जिसे सीएचएसजे ने प्रका‍शित किया है।)

 

The post कौन कहता है लड़कियों के साथ भेदभाव हो रहा है? appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.


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