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‘दंगल’गांव की हर छोरी धाकड़ है

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Translated from English to Hindi by Sidharth Bhatt.

हरियाणा का बलाली गांव तब से ही चर्चा में है, जब गीता फोगाट ने कुश्ती में भारत के लिए राष्ट्रमंडल खेलों में पहला गोल्ड मैडल जीता। यह गांव एक बार फिर चर्चा में है, फोगाट बहनों के जीवन पर आधारित आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’ कल रिलीज़ हो रही है। फोगाट बहनों के अलावा इस गांव के बारे में कम ही बात होती है, जैसे यहां का सामान्य जीवन कैसा है या यहां की अन्य महिलाओं का जीवन कैसा है।

यहां की कुदरती ख़ूबसूरती ही केवल इस गांव की खासियत नहीं है, इस गांव का लिंग अनुपात या सेक्स रेशिओ (921 स्त्री प्रति हज़ार पुरुष) भी हरियाणा के सेक्स रेशिओ (879 स्त्री प्रति हज़ार पुरुष) और जिला भिवानी के सेक्स रेशिओ (886 स्त्री प्रति हज़ार पुरुष ) से कहीं बेहतर है। हालांकि ये सभी मानते हैं कि गीता और बबीता फोगाट की सफलता से लड़कियों की कबड्डी और कुश्ती जैसे खेलों में रूचि बड़े पैमाने पर बढ़ी है, लेकिन इस बात पर लोगों के विचार अलग-अलग हैं कि कबसे यहां की महिलाओं के लिए तय कर दिए गए घर के काम के अलावा अन्य चीज़ों में भी रूचि दिखाना शुरू किया।

Young and teenage children pose for a picture in a playground with their coach and guardians.
फोटो आभार: अभिषेक झा

एक दोपहर हुक्का पी रहे गांव के कुछ बुज़ुर्गों ने मुझे बताया कि उन्होंने अपने बेटों और बेटियों में शिक्षा को लेकर कभी कोई भेदभाव नहीं किया। आस-पास के गांवों में उनके गांव की ही महिला ने 1960 में सबसे पहले मेट्रिक की परीक्षा पास की थी।

बलाली से सबसे पहले मेट्रिक की परीक्षा पास करने वाली राजपति सांगवान के छोटे भाई रघुबीर सिंह बताते हैं कि, “उस समय कोई भी अपनी बेटियों को नहीं पढ़ता था। मेरे पिता तब गांव से बाहर रहते थे और बेरोज़गार थे, उस वक़्त भी उन्होंने हम सभी को पढ़ाया।” सांगवान की बात यही पर ख़त्म हुई लेकिन पढ़े-लिखे होने के बाद भी उन्हें उनके ससुराल वालों ने काम करने की इजाज़त नहीं दी।

अगर गीता और बबीता आगे बढ़ सकती है तो हम क्यूं नहीं?

आज 50 साल के बाद स्थितियां काफी बदल चुकी हैं। 2010 में जब गीता फोगाट ने गोल्ड मैडल जीता, उसी साल इसी गांव की पिंकी भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट बनी। उनकी माँ संतोष बताती हैं कि, इस गांव में लड़कियों के पढ़ाई करने और पढ़ाई के बाद जॉब करने में किसी भी तरह की रोक नहीं है। हालांकि गांव की बेटियों से उलट बहुओं के लिए ये नियम बिल्कुल अलग है, जब मैंने संतोष से पूछा कि गांव में अब भी कुछ महिलाऐं घूंघट क्यूं रखती हैं तो उन्होंने बताया, “इस गांव में आपको ये नियम तो मानना ही पड़ेगा, बेटियों पर कोई पाबंदी नहीं है लेकिन बहुओं पर है।”

हालांकि गांव के पास एक सरकारी आई.टी.आई. (इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट या औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान) में पढ़ने वाली महिलाऐं इस बात से सहमती नहीं रखती। वो कहती हैं कि किसी महिला को कितनी आज़ादी मिलती है, यह पूरी तरह से इस पर निर्भर करता है कि वो किस घर से है, इसका प्रभाव आई.टी.आई. में हर साल महिलाओं की घटती-बढ़ती संख्या से आँका जा सकता है। 2011 से इसी इंस्टिट्यूट में पढ़ा रही गीता रानी बताती हैं कि बलाली से यहां आने वाली महिलाओं के संख्या हर साल अलग-अलग रही है। वो कहती हैं कि, “लड़कियों की संख्या बदलती रहती है, कभी 4 से 5 महिलाऐं होती हैं, पिछले साल एक भी नहीं थी। इस साल यहां 6 महिलाऐं हैं। ये पढ़ने वालों पर निर्भर करता है कि वो क्या करना चाहते हैं।”

फोगाट बहनें सबसे बाएँ और सबसे दाएं; फोटो आभार: गेटी इमेजेस

कुछ लोगों को निश्चित तौर पर ये लगता है कि फोगाट बहनों की सफलता के बाद से गांव में महिलाओं की स्थिति में बहुत बड़ा बदलाव आया है। कॉलेज में पढ़ने वाली आरती बताती हैं कि अब ज़्यादा लड़कियां बेहद उत्साह से खेलों में हिस्सा लेती हैं।

आई.टी.आई. की एक और छात्रा मोना के लिए भी ये महिला पहलवान, प्रेरणा का श्रोत हैं। वो शादीशुदा हैं लेकिन पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद वो आगे काम करने क इरादा रखती हैं। उन्होंने कहा कि, “पहले मैं कुछ करने के बारे में नहीं सोचती थी। फिर मैंने सोचा कि पूरे गांव में गीता और बबीता के बारे में बात की जाती है और गांव के महिलाऐं सोचती हैं कि अगर ये कर सकती हैं तो हम क्यूं नहीं? मेरे स्कूल में भी सभी लड़कियां अब आगे बढ़ने के बारे में सोचती हैं।”

ऐसा नहीं है कि फोगाट बहनों का प्रभाव केवल गांव की युवा लड़कियों पर ही है। गांव के मिडिल स्कूल की टीचर इन चार्ज सुनीता के अनुसार, जिस तरह की प्रशंशा और ख्याति इन बहनों को मिली है उससे गांव के अन्य माता-पिता भी खुल कर सोचने लगे हैं। उन्होंने बताया कि “बहुत से लोग उन्हें जानते हैं और वो अपनी बेटियों की परवरिश भी उन्ही की तरह कर रहे हैं या करने की कोशिश कर रहे हैं। इसका असर बच्चों पर भी हुआ है वो भी गीता और बबीता की तरह नाम कमाना चाहते हैं।”

एक मैडल से हुई ये शुरुवात:

इस गांव से पुरुष खिलाड़ी तो पहले से ही आते रहे हैं, लेकिन फोगाट बहनों के सफलता ने गांव की उन लड़कियों के लिए भी खेल के क्षेत्र के बंद दरवाज़े खोल दिए जो आज गांव से 3 किलोमीटर दूर आदमपुर स्टेडियम में प्रशिक्षण लेती हैं।

स्टेडियम में सरकार द्वारा नियुक्त कोच विकास सांगवान के अनुसार, महावीर सिंह फोगाट और एक अन्य कोच जय सिंह ने सन 2000 की शुरुवात में लड़कियों को ट्रेनिंग देने की शुरुआत की थी। उस वक्त करीब 10 से 12 लड़कियां आती थी। आज ये संख्या बढ़कर 50 हो चुकी है जो ट्रेनिंग लेने वाले लड़कों से मामूली रूप से कम है। वो इस बदलाव की वजह महावीर सिंह के परिवार को बताते हुए कहते हैं कि, “उन्होंने इस खेल में एक रूचि पैदा की। उसके बाद मैडल मिलने लगे। फिर ये खुलकर होने लगा। सभी लोग अपने बेटियों और बेटों को लेकर अब यहां आते हैं।”

मैंने उसे कुश्ती नहीं करने दी क्यूंकि मेरे पास साधन नहीं थे:

इस गांव में अब भी गरीबी एक मुख्य कारण है जो लड़कियों को मैदान में जाकर खेलने से रोकती है, खासकर जब ये कुश्ती जैसा खेल हो। व्यक्तिगत खेल होने के कारण इस खेल की ट्रेनिंग में काफी खर्चा आता है। हालांकि यह कारण इन लड़कियों को कबड्डी जैसे खेलों में जाने से नहीं रोक पाया है।

सविता इसी तरह का एक उदहारण हैं। नौवीं कक्षा की इस छात्रा को कुश्ती में रूचि थी, लेकिन उसने हाल ही में स्टेडियम में कबड्डी की ट्रेनिंग लेनी शुरू की है। सविता ने कबड्डी खेलना तब शुरू किया जब उनके स्कूल टीचर ने एक टूर्नामेंट में स्कूल की टीम में उनका नाम दर्ज किया अब वो नियमित रूप से स्कूल के टूर्नामेंट में हिस्सा ले रही हैं और राष्ट्रीय स्तर पर भी खेल चुकी हैं।

अनीता, सविता, और मनीषा (बाएँ से दूसरी, तीसरी और चौथी) अब कबड्डी में राष्ट्रीय स्तर पर अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व कर रही हैं;फोटो आभार:अभिषेक झा

सविता के पिता बुद्ध राम से बात करने पर उन्होंने मुझे बताया कि, “मैंने उसे कुश्ती में हिस्सा नहीं लेने दिया क्यूंकि इसमें खान-पान का भी काफी खर्चा आता है, मेरे पास इतना पैसा नहीं है। कबड्डी में 12 खिलाड़ी होते हैं, जिनमे 7 खेलते हैं और 5 अतिरिक्त बेंच पर होते हैं। कुश्ती में आप को सब अपनी ताकत के बूते पर ही करना होता है।” बुद्ध राम जो एक दिहाड़ी मज़दूर हैं, अगर उनके पास साधन होते तो वो ज़रुर सविता को कुश्ती में हिस्सा लेने देते, लेकिन अभी वो और उनका परिवार सविता के कबड्डी में हिस्सा लेने से ही खुश हैं।

बुद्ध राम रोज़ स्टेडियम में ट्रेनिंग लेने वाले अन्य बच्चों के पिताओं के साथ सविता को स्टेडियम लेकर जाते हैं।

एक और पिता जो बुद्ध राम की ही तरह अपनी बेटी को स्टेडियम लेकर जाते हैं, ने मुझे बताया कि, “जब टीचर ने बच्चों को ब्लॉक स्तर की टीम के लिए चुना तो मैं खुद उन्हें टूर्नामेंट में लेकर गया, उनका खेल देखकर मेरी रूचि भी इस खेल में बढ़ी।” वो आगे सवालिया अंदाज़ में कहते हैं, लड़के और लड़की में भेद क्यूं किया जाए, हैं तो सभी इंसान ही?

जैसे-जैसे सभी लोग बच्चों को स्टेडियम ले जाने के लिए बुद्ध राम के घर जमा हो रहे थे, उनकी पत्नी खाना बनाने में व्यस्त थी, एक तरह से घर में ही बंधी हुई। लड़कियां, स्टेडियम जाते हुए अपने पिताओं को पीछे छोड़ जॉगिंग करती हुई गांव के बाहर स्थित बस स्टॉप की ओर निकल गयी। वहीं बस स्टॉप पर आई.टी.आई. कॉलेज की छात्राएं बेफिक्र होकर आपस में बातें कर रही थी। 6 साल या एक दशक का समय किसी समाज को पूरी तरह से बदलने के लिए काफी नहीं है, लेकिन बलाली में लड़कियों की बातों और माँ-बाप की उम्मीदों में आप बदलाव की एक झलक तो देख ही सकते हैं।

इसी गांव की एक गृहणी ने मुझे बताया कि, फोगाट बहनों की सफलता के बाद से इस गांव में अब हर कोई चाहता है कि उनके बच्चे आगे बढ़ें। जब मैंने उनसे पूछा कि क्या आपके लिए भी कुछ बदला है तो उन्होंने कहा, “मैं क्या करुँगी? मैं तो बस खाना ही बनाती हूं।” और वो हंसने लगीं। लेकिन उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि, अब वो अपने बेटों और बेटियों के भविष्य के बारे में एक ही तरह से सोचने लगें हैं।

To read original article in English click here.

The post ‘दंगल’ गांव की हर छोरी धाकड़ है appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.


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