मुझे बेंगलुरु जैसे एक सभ्य, और आधुनिक माने जाने वाले समाज की तो नहीं पर बदायूं जैसे पिछड़े इलाके की उस लड़की की आंख अभी भी नज़र आती है। समाज आधुनिक हो पिछड़ा यौन हिंसा के बीज तो हर जगह ही हैं। और हर समाज के अपने माध्यम हैं इस हिंसा व विकृति को अभिव्यक्त करने में। यही कोई तेरह-चौदह वर्ष की रही होगी वह लड़की। जब उसे एसपी ऑफिस आना पड़ा। इस विभाग से होने के कारण यह तो मुझे मालूम ही है कि पीड़ा, असहयोग और असंतुष्टि का क्या स्तर होता है, जब लोग ऊपर के अधिकारियों से मिलने जाते हैं। उतनी पीड़ादायक, संकोच से भरी हुई, बेबस उसकी आँखे अभी भी मुझे परेशान कर देती है!
यौन हिंसा का ही मामला था। उसके सामने रहने वाला युवक उसे लगातार परेशान करता था। उसके सामने अपने कपड़े उतार कर अश्लील इशारे करता था। एक दिन तो उसने उस लड़की को उसके घर से ही खीचने का दुःसाहस कर डाला। खैर पुलिस तत्पर हुई। मैं यह तो नहीं कहूंगा कि उसे पूरा न्याय ही मिला। हां लेकिन उसके बाद उस लड़की में थोड़ा आत्मविश्वास जरूर बढ़ा। लेकिन प्रश्न यह है कि जो हीनता और इस समाज के प्रति अविश्वास उसके मन में पैदा हुआ क्या उसकी भरपाई हो सकेगी? क्या बेंगलुरु या कन्नौज की उन लड़कियों की तरह लाखों लड़कियां जो आज देश के कोने-कोने में रह रही हैं अपनी सुरक्षा,स्वतंत्रता और गरिमामयी जीवन जीने के प्रति आश्वस्त हो पाती होंगी?
इस देश में स्त्री केवल थाने में जाने से ही संकोच नहीं करती बल्कि वहां तो उसे एक मदद की आस भी दिखाई देती है। इसके विपरीत स्त्रियों को तो उन कदमों की आहट से डर लगता है जो उनके पीछे चल रहा होता है, उनलोगों से डर लगता है जो उनके अपने है और इस फ़िराक़ में रहते हैं कि कैसे उसके करीब आ जाएं, उस स्पर्श से डर लगता है जो उसके अभिभावक होने के नाम पर लोग करते हैं।
एक और अनुभव
यौन हिंसा हमारे अंदर तक धंसी हुई है। और उसको न्यायसम्मत सिद्ध करने के लिए हम तमाम माध्यमों का सहारा लेते हैं। अभी मेरी ट्रेन लखनऊ रुकी हुई है, बगल वाले सीट पर बैठे भाईसाहब के दो बच्चे हैं। एक लड़का और एक लड़की। दोनों की उम्र में ज्यादा फर्क भी नहीं है।दोनों बच्चों की ज़िद है कि पापा उन्हें प्लेटफॉर्म पर घुमाने ले चले। लेकिन पापा केवल बेटे को नीचे ले गए हैं और बेटी को उसकी माँ के पास भेज दिया यह समझाकर कि उसका माँ के पास रहना ज्यादा जरुरी है। मेरे पूछने पर उन्होंने कहा कि ‘बेटी है।’ तभी मुझे अपना अटेंडेन्ट लाल बहादुर की याद आती है। जिसका अभी बेटा हुआ है। और जिसकी ख़ुशी में उसने सभी लोगों में मिठाई बटवाया है। क्योंकि बेटा ज़िम्मेदारी नहीं है ,उसके कपडे़ पहनने, अकेले घूमने में लालबहादुर को कोई भय नहीं है।लड़कियों के अंदर उसके कमज़ोर होने का बीज हमसभी के द्वारा ही डाला जाता है। फिर उसके साथ कुछ बुरा होता है तब हमारे द्वारा ही उसके अंदर कमी निकाली जाती है। फिर उसकी नैतिकता को अपने गंदे मन-मष्तिष्क की धीमी आंच पर पकाते है। फिर उसको ही उस घटना के पीछे का कारण बताया जाता है। सब कुछ हमारे समाज में धीरे-धीरे पक रहा होता है, और स्त्री उबल रही होती है। इन भावों को व्यक्त करना भी निरर्थक जान पड़ता है लेकिन मौन रहना उससे भी निरर्थक! पर पता नहीं क्यों बदायूं वाली उस लड़की की शांत आँख मुझे अभी भी बेचैन करती है, और उससे भी ज्यादा परेशान करती है उसकी आंखो में किसी प्रकार का आक्रोश का न दिखाई देना!
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