‘गुड मॉर्निंग, जब आप सब यह खत पढ़ रहे होंगे, मैं आपसे दूर चला जा चुका हूंगा…मैं इस तरह की चिट्ठी पहली बार लिख रहा हूं। पहली बार, आखिरी खत’…
यह वाक्य रोहित वेमुला ने 17 जनवरी 2016 को लिखा था। यही उनकी ज़िंदगी का आखिरी दिन था। आज उनकी मौत को एक साल हो रहे हैं। इस एक साल में रोहित वेमुला की पहचान, हैदराबाद विश्वविद्यालय के दायरे से बाहर निकल कर पूरे देश में फैल गई है। वह कई पहचानों को समेट कर नई पहचान बन गए हैं।
इसलिए, आज जगह-जगह रोहित के संगी-साथी उसे अलग-अलग तरीके से याद कर रहे हैं। इनमें से ज़्यादातर तो ऐसे साथी हैं, जो उनकी मौत के बाद उनके नज़दीक आए हैं। रोहित के साथ मुल्क भर के नौजवान लड़कियों-लड़कों की यह नज़दीकी बताती है कि रोहित की मौत महज एक इत्तेफ़ाक नहीं थी। जैसा बताने की कोशिश होती है, न ही वह खुद अपनी मौत की वजह थे। न ही यह महज कोई उनका अपना निजी मसला था। रोहित की मौत ने उस तार को छेड़ा है, जिसका राग हम समाज सुनने से परहेज़ करते रहे हैं।
समाज में हाशिए पर छोड़ दिए गए तबकों के बच्चियां-बच्चे ज़िंदगी से जूझते हुए, ऊंची तालीम देने वाली जगहों पर पहले से काफी ज़्यादा तादाद में दस्तक दे रहे हैं। उनके लिए तालीम महज नौकरी पाने का ज़रिया नहीं है बल्कि वह तो सामाजिक-आर्थिक बदलाव का हथियार भी है। सम्मान से जीने के हक़ की लड़ाई लड़ने का औजार है। उनके लिए कैम्पस विचारों से लैस होने की जगह भी है। सामाजिक ज़िंदगी में पग-पग पर नफरत, भेद-भाव, तिरस्कार उनका भोगा हुआ सच है।
जब वे ‘ज्ञान के मंदिरों’ में दाखिल होते हैं, तो यहां भी वही सच भोगना पड़ता है। ज़्यादातर ज्ञान के मंदिर इस सच से टकराते नहीं हैं। बल्कि वे तो इस सच को ढक कर रखना चाहते हैं। इस ‘मंदिर के पुजारी’ यहां भी उनके साथ वैसा ही सुलूक करते हैं, जैसा समाज में इनके साथ होता रहा है। ज़ाहिर है, ज्ञानी मनुष्य के नफरत करने का तरीका वही नहीं होगा, जो एक आम सामंती इंसान का होता है। ‘ज्ञान के मंदिर’ में वह अपने बुद्धि बल का इस्तेमाल करते हैं। इसी बुद्धि के जरिए भेदभाव की व्यवस्था को बनाए रखने की कोशिश करते हैं। इस व्यवस्था पर अगर कोई किसी भी तरह का सवाल उठाता है तो वे असलियत में इसे अपनी सत्ता को चुनौती की तरह लेते हैं। फिर वे उसे बख्शते नहीं हैं।
रोहित और उनके दोस्तों ने नफरत की इसी व्यवस्था से टकराने की कोशिश की। सवाल उठाए। उन्हें भी चुनौती माना गया। मौका देखकर, उनकी ‘अकादमिक हत्या’ करने की कोशिश की गई। उन्हें कैम्पस से बाहर करके उन्हें ज़ेहनी तौर पर तोड़ने और सम्मान से उठे उनके सिरों को झुकाने की पुरजोर कोशिश की गई।
ज़रूरी नहीं कि एक ही घटना का सब पर एक जैसा असर हो। ऐसा लगता है कि रोहित को यह सब बेहद अपमानजनक और इंसानियत से गिरी हुई चीज़ लगी। हालात से मायूसी भी कम नहीं हुई। तब ही तो उन्होंने मौत से ठीक एक महीने पहले तंज में ही सही वीसी को चिट्ठी लिख दलित स्टूडेंटों को ज़हर और फांसी का फंदा मुहैया कराने को कहा। यही नहीं, अपने लिए इच्छा मृत्यु की मांग भी की। दलित छात्र की हालत बयान करने के लिए यही बात काफी है।
वही रोहित 17 जनवरी को फिर पूरी दुनिया को लिखते हैं, ‘…किसी शख्स की कीमत महज़ उसकी औचक पहचान में समेट कर रख दी गई है। उसकी कीमत महज़ उसके ज़रिए लिए जाने वाले फायदे तक सिमट गई है। वह सि़र्फ एक वोट बन कर रह गया है। उसे सिर्फ आंकड़ा बना दिया गया है। कभी किसी शख्स की हैसियत उसकी दिमागी काबिलियत से नहीं आंकी गई… कुछ लोगों के लिए उनकी ज़िंदगी ही लानत और बद्दुआ है। मेरी पैदाइश, मेरा जानलेवा हादसा है। … मैं इस व़क्त दुखी नहीं हूं। मैं उदास भी नहीं हूं। बस खाली-खाली सा महसूस हो रहा है। अपने आप से बेपरवाह। यही नाउम्मीदी है और इसलिए मैं यह कर रहा हूं’।
और इसके बाद रोहित नहीं रहे। उन्हें ज़िंदा नहीं रहने दिया गया। कहने को तो यह खुदकुशी थी। हालांकि, जिनके लिए जीने लायक हालात ही न छोड़े जाएं, जिन्हें मौत की ओर धकेल दिया जाए, जिनके लिए अपनी बात कहने और सुनाने के लिए मौत के अलावा और कोई रास्ता न छोड़ा जाए… उनकी मौत सिर्फ और सिर्फ हत्या ही हो सकती है। रोहित की भी हत्या की गई। तब ही, इस हत्या पर पर्दा डालने के लिए हैदराबाद से दिल्ली तक लामबंदी हो गई थी। मगर इस लामबंदी से वे सवाल नहीं दब पाए, जो रोहित ने उठाए थे और जो उनकी मौत से उपजे थे।
इसीलिए, मौत के बाद से रोहित की पहचान, समाज, राजनीति और ज्ञान के मंदिरों में पसरे नफरत के शिकार और उसके खिलाफ आवाज उठाने वाले रोहित के रूप में देशव्यापी हो गई। गौरतलब है, निर्भया कांड के बाद उभरे जन आंदोलन की मांग पर यौन हिंसा से जुड़े कानूनों में बड़े बदलाव किए गए थे। ठीक इसी तरह किसी और मेधावी रोहित को नफरत और भेदभाव की वजह से जान न देनी पड़े, इसके लिए एक अलग कानून बनाने की मांग उठी। इसे ‘रोहित वेमुला एक्ट’ का नाम दिया गया।
ऐसा लग रहा था कि समाज, राजनीति और ज्ञान के मंदिर सभी अपने अंदर झांकेंगे। शायद प्रायश्चित भी करेंगे… और दिखावे के लिए ही सही, वे ‘ज्ञान के मंदिरों’ से नफरत दूर करने के लिए ‘रोहित वेमुला एक्ट’ जैसे कुछ सख्त कदम उठाएंगे। हालांकि, ऐसा नहीं हुआ। बल्कि जिन शख्सियतों पर रोहित की मौत का आरोप है, वे जस के तस हैं। यही नहीं, उन्हें सम्मान से भी नवाजा जा रहा है। दूसरी तरफ, दलित विद्यार्थियों की आवाज दबाने के लिए अलग-अलग विश्वविद्यालयों में कार्रवाइयों का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
शायद हमारे समाज के बड़े पढ़े-लिखे और फैसले लेने वाली हर जगह पर पांव जमाए बैठे मजबूत तबके के लिए रोहित के साथ हुई नाइंसाफी कोई ऐसा सवाल नहीं है, जिस पर वे अपना वक्त लगाना पसंद करें। तब ही तो वे रोहित को झुठलाने, राष्ट्रद्रोही साबित करने, दलित होने, न होने पर ज़्यादा ध्यान लगा रहे हैं। उसकी मां और भाई का जीना दुश्वार कर दिया है। यह हमारे सभ्य समाज का कमाल है। वह इंसाफ के लिए नहीं, नाइंसाफी बरकरार रहे- इसमें जुटा है।
लेकिन रोहित की मौत के बाद उनकी मां राधिका वेमुला देश में अलग-अलग जगहों पर भेदभाव नाइंसाफी के खिलाफ और नौजवानों के साथ जद्दोज़हद कर रही हैं। हाल ही में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि काश, हमारी पीढ़ी के लोगों ने नाइंसाफी और गैरबराबरी के खिलाफ लड़ाई लड़ी होती तो आज रोहित हमारे साथ होता। कोई और स्टूडेंट इस तरह के भेदभाव और नाइंसाफी का शिकार न हो, इसलिए मैं यह लड़ाई लड़ रही हूं। यह शिद्दत ‘सभ्य समाज’ में कितने लोगों के पास है?
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि कहीं भी यह गर्माहट और शिद्दत नहीं है। हाशिए के समाज के नौजवान लाख मुश्किलों के बाद भी अब बड़ी तादाद में केन्द्र में आने की कोशिश में जुटे हैं। वे अपनी पिछली पीढ़ी की तरह मूक नहीं हैं। वे मुखर हैं। वे ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, फातिमा शेख, बिरसा मुंडा, पेरियार, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर, भगत सिंह के विचारों से अपने को जोड़ते हैं। वे सबकुछ दांव पर लगाकर नफरत और नाइंसाफी से टकरा रहे हैं। वे रोहित वेमुला हैं। रोहित वेमुला जैसे मरा नहीं करते हैं। वे तो बीज हैं। पौधों की तरह उग आते हैं। बेल की तरह फैल जाते हैं। फैल रहे हैं। भगत सिंह के शब्दों में विचार हवा में तैरते हैं और बिजली की मानिंद चमकते हैं। रोहित भी तो अब एक विचार हैं।
ये लेख twocircles.net पर भी प्रकाशित हो चुका है।
The post रोहित वेमुला मरा नहीं करते, वे तो बीज हैं, पौधों की तरह उग आते हैं। appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.