हिंदी मीडियम’ फ़िल्म की शुरुआत ही ‘अंग्रेजी मीडियम’ से हुई जब आगे बैठी छोटी बच्ची ने बगल वाले से कहा ‘स्टैंड अप पापा’! और फिर क्या हम सभी खड़े हो गए और ‘जन गण मन’ गाने लगे। लेकिन मुझे याद नही आ रहा कि पिछली बार कब हम इतनी एकजुटता और भावुकता के साथ गरीबी,अशिक्षा,बेरोजगारी के लिए खड़े हुए हो और कोई मर्सिया ही गाया हो! खैर ठीक ही है लोगों के पास अब समय कम है और तब राष्ट्रभक्ति सीखने का यह शॉर्टकट कुछ कम रोचक नहीं!
फ़िल्म का एक संवाद ‘हम हैं ही स्साला हरामी’ सच लगने लगता है जब हम अपना मूल्यांकन करने लगते हैं। निज भाषा को उन्नति का मूल मानने वाले लोग अब हाशिये पर खड़े दिखाई देते हैं। भाषाई अस्मिता का प्रश्न चाहे कितना भी प्रासंगिक क्यों न हो वह बाजार में प्रश्न नहीं बनती क्योंकि बाज़ार की भाषा अंग्रेजी है, ऐसा हमने क्रिएट कर दिया है।
अब कोई लोहिया नही है जो ‘अंग्रेजी हटाओ’ की तख्ती लिए खड़ा हो! एक कोई दाढ़ी वाले आईआईटी के इंजीनियर साहब है जो कई साल से लगातार इसकी लड़ाई लड़ते आ रहे हैं लेकिन इनको पूछता कौन है ना हम ना आप! कौन रिस्क ले रे बाबा, अपनी तो लाइफ हिंदी पढ़ के फंस ही गई न! अब तो भाई लड़ाई हिंदी मिटाओ की है! क्योंकि मामला वाकई ‘क्लास’ का है।
हिंदी पढ़ो मिड-डे मील खाओ और फिर बीमार हो जाओ! अगर बीमार होने से बच भी गए तो बर्तन हाथ मे लिए अपने भविष्य के कैद होने की गीत गाओ! हिंदी आज के मजदूरों की भाषा है। हम अपने इन हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के स्कूलों में कोई डॉक्टर-इंजीनियर नहीं बल्कि वो हाथ पैदा कर रहे हैं जो बाज़ार के गुलाम बने रहेंगे। जिनको दो जून की रोटी, और अपने स्वाभिमान की लड़ाई ताउम्र लड़नी होगी!
मैकाले का कारखाना अब भी चल रहा हैं जिसमे मन से अंग्रेज पैदा किए जा रहे हैं। जिनके लिए क्षेत्रीय संस्कारो में पला बढ़ा आदमी तदभव संस्कृति का हिस्सा है।
हिंदी मीडियम ने बख़ूबी दिखाया कि अगर सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को भी साधन सुविधा उपलब्ध कराई जाए तो वो भी सब कुछ कर सकते हैं और उनमे भी वही योग्यता है जो महंगी फ़ीस वाले स्कूलों के बच्चों में है। लेकिन इतनी सी बात बीते हुए बर्षों में संघ लोक सेवा आयोग को समझ नही आई जो स्वयं ही ‘स्टील प्लांट’ का अनुवाद ‘इस्पात पौधा’ करता हो, उसके रिपोर्ट को उठा कर देख लीजिए क्षेत्रीय भाषाओं से कितने लोग आईएएस बने आपको इसका अंदाज़ा बखूबी लग जायेगा! तब कोई भी इन चार-पांच हिंदी भाषा प्रदेशों में दिन-रात तैयारी कर रहे छात्रों के समझ पर प्रश्न चिन्ह खड़े कर सकता है और इन राज्यों के हिंदी भाषी लोगों को कमसमझ वाला घोषित कर सकता है!लेकिन प्रश्न है कि किसी एक भाषा को ही ज्ञान का अंतिम विकल्प मान लेना कहां तक उचित है!
यह साजिशन है जब सरकारी स्कूलों के स्तर को निम्न स्तर पर लाया जा रहा है और हम सभी इसी साजिश में कही न कही साझेदार हैं। शिक्षा का निजीकरण होता जा रहा है और वाकई यह अब एक धंधा है। या तो स्कूल खोलिए नकल कराइए या मोटी फ़ीस वसूलिये! लेकिन बात मानिए सरस्वती लक्ष्मी तक पहुचने की सबसे आसान माध्यम है।
Hindi Medium में सबकुछ है अपनी दम तोड़ती भाषा पर आंसू बहाने के लिए ही सही एक बार देख आइए।
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