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मुबारक हो भाई, हम भी पाकिस्तान हो गए!

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कश्मीर में बीते अप्रैल के महीने में एक युवा फारुक अहमद डार को जीप पर बांधकर घुमाने के बाद देश का कथित मानवाधिकार खतरे का निशान पार कर शर्मिंदा हो गया था। ज्ञात हो कि उसे बांध रखा था ताकि गिरे ना! लेकिन जब रोडवेज की बसों व ट्रेनों में खिड़कियों में लटककर यात्रा करते लोगों को देखता हूं तो मेरे मन में फारुक के लिए कोई सहानुभूति नही बचती। बस फिक्र होती है तो इनके मानवाधिकार की, कि काश कोई मेजर गोगाई इन्हें भी बस और ट्रेन से और इस देश को धर्मनिरपेक्षता के सूत्र में बांध पाता!

दरअसल किसी भी देश और समाज में ज्ञान का श्रोत स्कूल, कॉलेज और पुस्तकें होती हैं, पर भारत में आज-कल ज्ञान का झरना सोशल मीडिया से बहता है। इस कारण अब धर्मनिरपेक्षता का नाम लेना यूं हो गया जैसे कि आपने राष्ट्रीय एकता को ललकार दिया हो! हर रोज़ की रोती-बिलखती, हंसती, मुस्कुराती घटनाओं को देखकर ऐसे माहौल में मेरे अन्दर का मनुष्य दिन में कई बार पैदा होता है कई बार मरता है।

सुबह-सुबह सोशल मीडिया का दरवाजा खोला तो पहले पोस्ट में पढ़ा कि फरीदाबाद ट्रेन में मृतक जुनैद का भाई कह रहा है कि ट्रेन में लोग चिल्ला रहे थे कि “और मारो.. और मारो।” मतलब यह है कि ट्रेन में बैठे जितने लोग थोड़ी देर पहले तक सेक्युलर दिख रहे थे वो सब अंदर से कट्टर हो गए थे। जब 5 लोग मारने लगे तो सबके अंदर मुस्लिमों के प्रति नफरत फट पड़ी। इस पोस्ट के आखिर में सवाल पूछा गया कि ये नफरत लोगों ने कुरान से सीखी या रामायण से? घटना जितनी निंदनीय है सवाल उतना ही जायज़ है और यह सवाल किसी एक पंथ, एक समाज, एक मजहब या एक सरकार पर उठाना गलत होगा क्योंकि जो समाज में बंट रहा है लोग उसे ग्रहण कर रहे हैं।

प्रशासन नेताओं के दबाव में कार्रवाही करता है और भीड़ एकदम से उपजी भावनाओं के दबाव में। ज़ाहिर सी बात है कि दोनों ही गलत तरीके हैं। सवाल किसी सरकार का इसलिए नहीं है, क्योंकि अखलाक के समय वहां समाजवादी पार्टी की सरकार थी। अभी झारखंड में भाजपा सरकार है, जहां दो लोगों को लटका कर मार दिया गया। श्रीनगर में भी दुर्भाग्यपूर्ण हादसा महबूबा की सरकार के समय हुआ। सवाल ये है कि ऐसा माहौल क्यों बनता जा रहा है? मैंने हमेशा भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का खुल कर समर्थन किया है और इसे हमेशा अपनी राष्ट्रीय और सामाजिक विरासत का हिस्सा माना है। मुझे इस बात का अफसोस होता है कि लोकतांत्रिक ढांचे के बावजूद भी हम अपनी धर्मनिरपेक्षता को संभाल नहीं पा रहे हैं, क्योंकि अब इसे राष्ट्रवाद का हिस्सा बताकर दबे पांव जायज़ ठहराने की मांग सी शुरू हो चुकी है।

भारत में जो राष्ट्रवाद हमेशा से था, आज भी है। अप्रैल माह के अंत में केरल के कोझीकोड़ में एक प्रोग्राम में हिस्सा लेने गया था। कार्यक्रम के अंत में जब राष्ट्रगान बजा तो मैं कार्यक्रम स्थल से थोड़ा दूर था। अचानक मैंने देखा कि एक आदमी नारियल के पेड़ से कूदकर राष्ट्रगान की धुन पर सीना तानकर एकदम सीधा खड़ा हो गया। तब मुझे अहसास हुआ कि राष्ट्रवाद यहां किसी फैक्ट्री और पार्टी से नहीं बल्कि 130 करोड़ लोगों की आत्मा से निकलता है, लेकिन आज इसे ऐसा मोड़ दिया जा रहा है कि वो ‘प्रगतिशील’ पार्टियों का मात्र एजेंडा बनकर रह गया है।

कल परसों सरहद के उस पार की खबर पढ़ी थी कि भारत की सीमा से 21 किलोमीटर दूर लाहौर में अशफाक मसीह नाम का एक ईसाई साइकिल मकैनिक था। एक मुसलमान उससे साइकिल बनवाने आया, अशफाक ने काम भी कर दिया। साइकिल वाले ने कहा “कितने पैसे?” अशफाक मसीह ने कहा- “पचास रुपए।” साइकिल वाले ने कहा, “पचास तो बहुत हैं, मैं तीस दूंगा।” अशफाक ने कहा कि “मैं पचास से एक पैसे कम नहीं करूंगा।” जब अशफाक मसीह ने जिद पकड़ ली तो साइकिल वाले ने शोर मचा दिया कि “अशफाक मसीह ने हमारे नबी हजरत मुहम्मद का अपमान कर दिया है।” भीड़ इकट्ठी हो गई और नबी के अपमान में अशफाक को सलाखों के पीछे कर दिया गया। सबको ज्ञात होगा कुछ दिन पहले पाकिस्तान के मकरान में एक छात्र मशाल खान को ईशनिंदा के झूठे आरोप में भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला था।

एक मुसलमान ने इसाई अशफाक का जीवन बीस रुपये के लिए बर्बाद कर दिया। जुनैद ख़ान 16 वर्ष का था, बीफ के आरोप में इतना ज्ख्मी हुआ कि मर गया। पाकिस्तान में किसी भी टीवी चैनल पर अशफाक मसीह की ख़बर नहीं दिखी। शायद इससे उनकी धर्मनिरपेक्षता को खतरा था। इधर श्रीनगर में हुजूम के हाथों मरने वाले पुलिस अफसर अयूब पंडित की ख़बर को जुनैद ख़ान की ख़बर खा गई, क्योंकि यहां मामला वोटों से जुड़ा था।

आंकड़े देखें तो पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तान में धर्म के अपमान का 1,056 लोगों पर आरोप लगाया गया, जिनमें 600 गैर मुसलमान और 450 मुसलमान हैं। हम अब अपने गिरेबां में झांके तो गौ माता के अपमान से लेकर, भीड़ द्वारा हत्या के आंकड़े, अखलाक, डॉ नारंग, पहलू खान, विकास, गौतम, अब जुनैद और अयूब पंडित के बाद कुछ इसी दिशा में मौत आंकड़े सरपट भागते दिखाई दे रहे हैं।

दोनों देशों में कितनी बड़ी सहूलियत हो गयी हैं ना! अगर भारत में किसी को रास्ते से हटाना हो तो गाय के अपमान का दोषी ठहरा दो और पाकिस्तान में किसी की सूरत पसंद न हो तो इस्लाम की तौहीन का आरोप लगा दो। फैसला अदालत पहुंचने से पहले ही हो जाएगा और तुरंत होगा। तो मुबारक हो भाई, हम भी पाकिस्तान हो गए…

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