महिला आरक्षण बिल सालों से सदन में धूल खाते-खाते कालातीत हो चुका है। सच तो यह है कि इसको पारित कराने में ना ही राजनीतिक पार्टियों को दिलचस्पी है और ना ही समाज के बड़े तबके को। पंचायत में आरक्षण के बाद महिलाओं के सशक्तिकरण और अच्छे प्रदर्शन के कई उदाहरण सामने आए हैं, लेकिन ये दुर्भाग्य की बात है कि इन महिलाओं में से कोई राजनीतिक सीढ़ी चढ़ती नहीं नज़र आती। आरक्षण से कुछ सकारात्मक बदलाव ज़रूर आया है, लेकिन ज़्यादातर जगह महिलाओं को नाममात्र की ही ताक़त मिलती है।अक्सर महिलाओं को सिर्फ़ नाम के लिए चुनाव लड़ाया जाता है जबकि पद का उपयोग उनके पति/पिता ही करते हैं।
भारत में आज़ादी के समय से ही महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार व आज़ादी दी गई है। इसके बावजूद भी राजनीति की मुख्यधारा में महिलाओं की भागीदारी बहुत सीमित है। संसद व विधानसभा में पहुंचने वाली ज़्यादातर महिलाएं राजनीतिक परिवारों से ही संबंध रखती हैं।
ताज्जुब की बात है कि जिस देश में मायावती, ममता बनर्जी व जयललिता जैसी महिलाओं ने बड़ा राजनीतिक मुक़ाम हासिल किया है, वहां आज भी महिलाओं के लिए राजनीति को एक स्वीकार्य पेशा नहीं माना जाता।
इसके पीछे हमारी पुरुषप्रधान मानसिकता एक बड़ा कारण है। आज भी महिलाओं को ताक़तवर व ऊंचे पदों पर स्वीकार कर पाना हमारे समाज के लिए आसान नहीं है। दूसरा अहम कारण राजनीति में महिलाओं को लेकर गलत धारणा का होना है। इस धारणा का उदाहरण अक्सर फ़िल्मों में देखा जा सकता है। ये माना जाता है कि राजनीति में आगे बढ़ने के लिए महिलाओं को कहीं ना कहीं ‘समझौता’ करना पड़ता है। शायद यह बड़ी वजह है कि सामान्य घरों की पढ़ी-लिखी महिलाएं राजनीति में आने से हिचकिचाती हैं।
आखिर क्यूं समाज के सामने अपने चरित्र पर सवाल उठवाए जाएं? इस धारणा के पीछे एक कुंठित समाज की सोच है जो महिलाओं की तरक्की को एक ही संकीर्ण नज़रिए से देखते हैं। योग्यता और मेहनत को बाहरी रंग रूप का नाम देकर ढक दिया जाता है।
किसी भी महिला को दबाने का सबसे बड़ा हथियार यानि चरित्रहनन, राजनीति में नि:संकोच इस्तेमाल किया जाता है। अगर एक महिला सार्वजनिक जीवन में है तो उसके चरित्र व उसकी निजी ज़िंदगी को जनता की बपौती बना दिया जाता है, मानो ये एक क़ीमत है जिसे चुकाना उस महिला के लिए अनिवार्य है।
मैंने अपना राजनीतिक जीवन 18 साल की उम्र में छात्र राजनीति से शुरू किया। देश के सबसे बेहतरीन कॉलेजों में से एक से पढ़ने के बाद राजनीति में आने का फ़ैसला लेना एक चुनौती से कम नहीं था। पढ़े-लिखे तबके में राजनीति को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता, ये जानने के बावजूद देश के लोकतंत्र में मेरे विश्वास व इसके प्रति आकर्षण ने मुझे इस रास्ते को चुनने पर विवश कर दिया। आज कई साल बाद मैं कह सकती हूं कि ये सफ़र आसान नहीं रहा है।
2017 के चुनाव के दौरान एक विपक्षी दल के नेता की अभद्र टिप्पणी के बाद भी, जो कि पूरे देश के सामने एक बड़ा मुद्दा बना आज भी मुझे इंसाफ़ नहीं मिला है। सत्ता की ताक़त कुछ ऐसी होती है कि तमाम सबूतों के बावजूद भी हमारी पुलिस दोषी व्यक्ति पर कार्रवाई करने में लाचार नज़र आती है। वहीं दूसरी ओर राजनीतिक जीवन से जुड़ी महिलाएं हमारे देश के अनियंत्रित सोशल मीडिया पर हर रोज़ खुद को अपमानित होता हुआ पाती हैं।
इससे भी ज़्यादा दुर्भाग्य की बात यह है कि ऐसी टिप्पणियां करने वालों में महिलाएं भी शामिल होती हैं। ऐसे में एक सभ्य घर की महिला के लिए ये दुगुनी चुनौती बन जाती है– जवाब दे नहीं सकते और चुप रहने से अंतरात्मा पर बोझ बढ़ता चला जाता है। इसका एक ही उपाय बताया जाता है – सहते रहो या फिर राजनीति से दूरी बना लो।लेकिन मेरा मानना है कि इसका समाधान सिर्फ़ और सिर्फ़ इस चुनौती का सामना करना और इस पर लोगों को जागरूक करना है।
आख़िर हम महिलाएं कैसे दूसरों के इंसाफ़ की लड़ाई लड़ेंगी, जब हम अपने ही स्वाभिमान की लड़ाई हार जाएंगी?
आज सभ्य परिवारों की सशक्त और पढ़ी-लिखी महिलाओं की ज़िम्मेदारी है कि देश के लोकतंत्र में अपनी जगह बनाएं और उनकी आवाज़ उठाएं जिनकी आवाज़ सत्ता के गलियारों तक नहीं पहुंच पाती। साथ ही साथ हमें राजनीति में महिलाओं के लिए एक सम्मानित जगह व सकारात्मक धारणा बनाने की लड़ाई को भी जारी रखना है।
The post बेहद मुश्किल है राजनीति में एक महिला होना: मेरा अनुभव appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.