”मूंछ नहीं तो कुछ नहीं” ये कहावत आप सबने सुनी होगी। लेकिन क्या मूंछ रखने का एकाधिकार किसी एक जाति के पास है ? क्या किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए पीटा जा सकता है क्योंकि उसने स्टाइलिश मूंछें रखी हैं ? क्या आपके चेहरे पर उगने वाले बालों पर भी कोई नियंत्रण कर सकता है? ये सवाल इसलिए ज़रूरी हो जाते हैं क्योंकि भारत में सम्मान और उसके प्रतिकों को जाति विशेष की बपौती माना जाता है। यानी आप ब्राह्मण या क्षत्रिय जैसी ऊंची जाति के हैं तो आप मूंछ रख सकते हैं वरना आपके मूंछ रखने को जातिवादी लोग अपने सम्मान पर हमले के तौर पर देखने लगते हैं।
या यूं कहूं कि जातिवादी लोग ये बर्दाश्त ही नहीं कर पाते कि कैसे कोई दलित या दबे-कुचले वर्ग का नौजवान मूंछों को ताव देते हुए आत्मसम्मान से सिर उठाकर उनके सामने से गुज़र जाए। जातिवादी लोग मन ही मन सम्मान से जीने वाले दलितों से नफरत करते हैं और कोई मौका नहीं छोड़ते अपनी जातिवादी सोच को ज़ाहिर करने का। गुजरात के लिंबोदरा गांव में स्टाइलिश मूंछें रखने पर दलित युवकों की पिटाई इसी जातिवादी मानसिकता का उदाहरण है।
असल में जातिवादी मानसिकता के लोग ये देख कर खुश नहीं होते कि आप पढ़-लिख रहे हैं, नौकरी-पेशे में हैं, अच्छे कपड़े पहनते हैं, महंगे फोन इस्तेमाल करते हैं और सम्मान से जीते हैं।
जिन जातिवादियों ने हज़ारों साल से आपके पूर्वज़ों को गुलाम बनाकर रखा, उन्हें अपनी दया पर जीने के लिए मजबूर किया, उनकी मेहनत को हड़प कर उन्हें दाने-दाने के लिए मोहताज कर दिया वो आपके स्वतंत्र अस्तित्व से बौखला जाते हैं। जातिवादी लोग आज भी यही चाहते हैं कि आप उनके सामने झुकें और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने वाली मुद्रा में खड़े रहें। जब आप ऐसा नहीं करते तो वो आपको घमंडी कहते हैं और सबक सिखाने के लिए मारपीट, हत्या या दूसरे तरह के अत्याचार करते हैं।
एक बार न्यूज़रूम में मुझसे एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा था कि तुम किस ऐंगल से दलित लगते हो ? तुम तो अच्छे से रहते हो, खाते-पीते हो, अच्छे कपड़े पहनते हो, पढ़े-लिखे हो। तब मैंने उन्हें जवाब दिया था- सर क्या आप चाहते हैं कि मैं फटे-पुराने कपड़ों में रहूं और आपके सामने हमेशा ऐसी मुद्रा में रहूं कि आपको मुझे देखते ही दया आ जाए।
सर आप अपनी आंखों से दलितों की उस ‘दुखिया’ वाली छवि को हटा दीजिए जिसे महान अभिनेता ओम पूरी ने 1981 में आई फिल्म ‘सदगति’ में निभाया था। बतौर भारतीय गणराज्य के नागरिक, दलितों को वो सारे हक मिले हैं जो भारतीय संविधान ने आपको दिये हैं। संविधान का अनुच्छेद 21 हमें गरिमापूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है। इसलिए जातिवादियों को अपने उस पूर्वाग्रह से बने हुए गंदे चश्में को तोड़कर फेक देना चाहिए।
दलितों को मूंछ रखने पर पीटना, शादी में घोड़ी चढ़ने पर पत्थर फेंकना, बाबा साहेब डॉ अंबेडकर की रिंगटोन लगाने पर पीट-पीटकर मार डालना, गरबा देखने जाने पर हत्या कर देना, ये सब दिखाता है कि जातिवादी कितनी गंभीर मानसिक बीमारी से ग्रस्त हैं। ऐसे जातिवादी लोग चलते-फिरते बम हैं जिन्हें मानसिक रोगियों के लिए बने हुए अस्पतालों में होना चाहिए क्योंकि ये लोग किसी की भी जान के लिए खतरा बन सकते हैं।
गुजरात में मूंछ रखने पर दलित युवकों की पिटाई के खिलाफ सोशल मीडिया पर ज़बरदस्त विरोध जताया गया। हमने फेसबुक और ट्विटर पर #DalitWithMoustache नाम से कैंपेन चलाया जिसमें हज़ारों दलित युवकों ने अपनी मूंछों वाली सेल्फी पोस्ट की और जातिवादियों की गुंडागर्दी का विरोध किया। सोशल मीडिया पर शुरू हुई ये मुहिम दुनिया भर की मीडिया वेबसाइट्स पर छा गई। मुझे देश के अलावा यूरोप और अमेरिका में रहने वाले कई लोगों ने बधाई संदेश भेजे और हमारे कैंपेन को लेकर समर्थन जताया। अब पुलिस कह रही है कि मामला झूठा है लेकिन क्या आप ये बात नहीं जानते कि हमारे देश में पुलिस कैसे काम करती है?

ज़रा सोचिए, सात समंदर पार बैठा कोई व्यक्ति जब ये पढ़ेगा कि भारत में किसी दलित व्यक्ति को सिर्फ इसलिए पीटा गया क्योंकि उसने मूंछें रखी थी तो देश की कितनी बदनामी होगी। जातिवादी लोग कितना नुकसान कर रहे हैं देश का।
दुनिया के कई देशों में मूंछों को मर्दानगी से जोड़ कर देखा जाता है। भारत में तो मूंछों को लेकर खास लगाव देखने को मिलता है। मूंछों को ना सिर्फ मर्दानगी बल्कि सम्मान के तौर पर भी देखा जाता है। अक्सर हिंदी फिल्मों में किसी बड़े काम को करने के बाद हीरो या विलेन मूंछों को ताव देते हुए दिखाई दे जाते हैं। भारत में आपको मूंछों का जातिगत बंटवारा भी देखने को मिलता है। जैसे राजपूत, ठाकुर और राजे-रजवाड़े बड़ी ही शान से मूंछे रखते थे। ब्रिटिश युग में ब्रिटिश फोर्सेज़ में भर्ती होने वाले भारतीय लोग मूंछें रखते थे। कहते हैं कि जब बिना मूंछों वाला कोई अंग्रेज़ कमांडर अपनी टुकड़ी को कमांड देता था तो भारतीय सैनिक उसे गंभीरता से नहीं लेते थे। फिर अंग्रज़ों ने भी मूंछें रखना शुरू कर दिया। ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेज़ी रेज़र और ब्लेड्स के विरोध में भी भारतीयों ने दाढ़ी-मूंछ बढ़ाना शुरू कर दिया था। हड़प्पा सभ्यता से लेकर मैसोपोटेमियाई सभ्यता तक के अवशेषों में आपको दाढ़ी-मूंछ रखने वाले पुरुषों के सबूत मिल जाएंगे।
दरअसल मूंछें रखना भी पितृसत्तात्मक मूल्यों और जेंडर की थोपी हुई एक बाध्यता है। जैसे आपको मर्द दिखने के लिए खास तरह से आवाज़ निकालना, खास तरह से चलना या खास तरह से व्यवहार करना पड़ता है वैसे ही मूंछें भी आपको उसी जेंडर के सांचे में ढालने के लिए एक उपकरण के तौर पर इस्तेमाल होती हैं।
जातिवादी लोग इसमें और गंदी चीज़े डाल देते हैं और इसे अपनी जातीय श्रेष्ठता का प्रतीक बना लेते हैं। और जब कोई इन प्रतीकों पर हक़ जताने लगे तो उन्हें ये बर्दाश्त नहीं होता। ऐसी सोच असल में एक मानसिक रोग है जिसका इलाज होना बहुत जरूरी है।
नोट – मैं मूंछ रखने या ना रखने को मर्दानगी या जातीय श्रेष्ठता की निशानी नहीं मानता। ये बेहद ही व्यक्तिगत सा मामला है आपको अच्छी लगे तो रखो वरना नहीं क्योंकि मुंह भी आपका है और उसपर उगने वाले बाल भी ।
सोशल मीडिया और वेबसाइट फोटो- फेसबुक प्रोफाइल देश राज
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