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बाहुबली आनंद मोहन की रिहाई क्या बिहार में अराजकता और माफियाराज की शुरुआत है?

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बीते दिनों बिहार की राजनीति में कुछ ऐसा हुआ जो सामाजिक न्याय के नेता नीतीश कुमार एवं तेजस्वी यादव पर अहम सवाल खड़े कर दिए। हम बात कर रहे हैं बिहार के गोपालगंज के पूर्व जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए और आजीवन कारावास की सजा पाए पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह की जो हाल ही में जेल से रिहा हुए हैं। 

कौन है आनंद मोहन

आनंद मोहन बिहार के शिवहर से पूर्व लोकसभा सांसद है। उन्होंने बिहार पीपुल्स पार्टी की स्थापना भी की थी जो अब अस्तित्व में नहीं है। आनंद मोहन को राजनीतिक नेता के साथ-साथ एक अपराधी के तौर पर भी जाना जाता है। साल 1994 में दलित IAS अधिकारी जी कृष्णैया के हत्या के आरोप में इन्हें फाँसी की सजा हुई थी, जो साल 2007 में उम्रकैद में तब्दील कर दी गई। अब उस सजा को बिहार सरकार द्वारा जेल अधिनियम का संशोधन कर निरस्त कर दिया गया है जिसमें आनंद मोहन बरी हो चुके हैं। 

कहाँ गया बिहार सरकार का न्याय

जहाँ देश में कई जगह दलित विरोधी घटनाएं हो रही है, अनेक शैक्षणिक संस्थानों एवं रोज़गार में आरक्षण को लागू नहीं किया जा रहा है, ऐसे में नीतीश-तेजस्वी का सामाजिक न्याय का मॉडल लोगों को बहुत प्रभावित कर रहा था। लालू यादव की छवि भी गरीब-पिछड़ों का मसीहा के रूप में ही रहा है। लेकिन बिहार सरकार द्वारा आंनद मोहन की रिहाई सामाजिक न्याय पर अनेकों सवाल खड़े करती है। 

बिहार सरकार का यह कदम दलित एवं सरकारी अफसरों के मन में नाउम्मीदी पैदा करती है कि क्या गुनाह होने के बावजूद भी सरकार सावर्णों और तथाकथित अपराधियों का ही पक्ष लेती रहेगी। आई ए एस असोसिएशन एवं दलित पार्टियों ने इस पर गहरी आपत्ति जताई है। उन्होंने बिहार सरकार से अपने फैसले पर पुनः विचार करने का अनुरोध भी किया है। 

बिहार में जातिवाद की कसती जड़ें

बिहार सरकार का यह कदम अनेक कयासों को जन्म देता है। कुछ लोगों का मानना है कि राजपूत वोट को आकर्षित करने के लिए ऐसा किया गया है। वहीं कुछ लोग कह रहे हैं कि बिहार सरकार माफियों की मदद से चुनाव जीतना चाहती है। बिहार सरकार की जो भी मंशा रही हो, यह सामाजिक न्याय के ख़िलाफ़ ही दिख रही है। क्या कोई अपराधी दलितों के जान एवं सम्मान से ज्यादा महत्वपूर्ण है, यदि वोट बैंक के लिए भी किया गया हो क्या छः प्रतिशत राजपूत वोट दलितों के न्याय से ज्यादा है।

ऐसे अनेक सवालों ने दलित-ओबीसी में एक अंतर पैदा कर दिया है। दलितों को अब लगने लगा है कि ओबीसी वर्ग भी उनके संघर्ष और समस्याओं को नहीं समझ रहा है। वह भी सवर्ण की भांति उन पर अत्याचार कर रहा है। क्या हम ऐसा समाज चाहते थे, जिसमें आज़ादी के सात दशक बाद भी दलित अपने अधिकार के लिए लड़ रहे हैं। क्या नीतीश-तेजस्वी यह चाहते हैं कि दलित वर्ग उन पर विश्वास करना छोड़ दें। 

क्यों विपक्ष भी है चुप

हम यह देख रहे है कि आनंद मोहन की रिहाई को बिहार के विपक्षी दल भी खुल के विरोध नहीं कर पा रही है। उनके कई नेता अपने जातीय समीकरण को बचाने में लगे हुए हैं। इस स्थिति में दलितों के अधिकार की बात करने वाला कोई नहीं है और आज फिर से दलित अपना संघर्ष खुद लड़ रहे हैं। आनंद मोहन की रिहाई केवल दलितों के ही मनोबल पर ही चोट नहीं करती बल्कि यह पूरे बहुजन आंदोलन के प्रभाव को कम कर दिया है। जहाँ बहुजनों को एक साथ मिल कर जातिवादी गुटों के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिए वहीं आज दलित ओबीसी अलग-अलग नज़र आने लगे हैं।

कैसा होना चाहिए सामाजिक न्याय का स्वरूप

संविधान को बने हुए लगभग सात दशक बीत गए। लेकिन आज भी समाज का हरेक वर्ग समान नहीं हो पाया है। नौकरी से लेकर शिक्षा तक, सभी जगह सवर्ण वर्ग के लोगों का वर्चस्व है। एस सी,  एस टी, ओबीसी वर्ग के लोग अभी भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। ऐसे में किसी सवर्ण अपराधी व्यक्ति को जेल से रिहा करवाना, बाबासाहेब, बी पी मण्डल, कांशीराम के सपनों पर चोट मारना होगा।

हमारा यह मानना है कि देश और सामाजिक न्याय के लिए बिहार सरकार को अपने फैसले पर पुनः सोचना चाहिए। बहुजन वर्ग का संघर्ष सभी वर्गों को मिलकर करना चाहिए, सामाजिक समसरता को बनाए रखने के लिए समाज के कानूनों का सख़्ती से पालन होना चाहिए और सरकारी अफसरों के जान-माल के सुरक्षा का विशेष इंतेज़ाम होना चाहिए। 


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