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“सावित्रीबाई फुले सिर्फ स्कूल खोलने वाली दलित महिला नहीं, विचारधारा हैं”

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Savitribai Phule - the exemplary social workerSavitribai Phule - the exemplary social worker

शिक्षा समाज के जागरण में मुख्य भूमिका निभाती है। वास्तव में शिक्षा किसी भी देश या समाज के विकास का आधारभूत ढांचा होता है। यह विदित है कि जिस समाज या देश की शिक्षा प्रणाली उच्च कोटि की होती है या यूं कहें कि जिस समाज या देश की शिक्षा उस समाज के सापेक्ष होती है, उस समाज के तत्व निहित होते हैं। उस देश का विकास बहुत तेज गति से होता है। आज दुनिया भर में यह प्रमाणित हो चुका है कि शिक्षा हर एक नागरिक का सम्पूर्ण विकास करती है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज को देखते हुए, महिलाओं के लिए शिक्षा का महत्व और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है। महिलाओं के अधिकार और शिक्षा के क्षेत्र में एक नाम जो हमेशा के लिए अंकित हो गया है, वो है सावित्रीबाई फुले।

शिक्षा का महत्व

शिक्षा हमें जहां एक ओर स्कूली पाठ्यक्रमों से मिलती है वहीं दूसरी ओर सामाजिक परम्पराओं से भी मिलती है। समाज का ढांचा जैसा होगा शिक्षा उतनी ही महत्वपूर्ण हो जाती है। मतलब यह कि समाज का ढांचा यदि निम्न वर्ग का है तो उस समाज के शिक्षा कि महत्ता और अधिक बढ़ जाती है। गौरतलब है कि जिस समाज के भीतर स्त्रियाँ अधिक जागरूक होती है वह समाज कहीं अधिक विकसित हो रहा होता है।

स्त्रियों के भीतर एक प्रशासक की क्षमता पुरुषों की अपेक्षा बेहतर होता है। भारत देश में ऐसी कई नायिकाएँ हैं जिन्होंने अपना योगदान देकर समाज को एक नयी दिशा प्रदान की है। इनमें सावित्रीबाई फुले का नाम अग्रणीय है। इन्हें क्रांतिज्योति भी कहा जाता है। क्रांति सिर्फ राजनीतिक रूप में नहीं होती बल्कि समाज के भीतर फैली विभेदता, अंधविश्वास आदि को दूर करने के लिए विचारों कि क्रांति भी होती है । सावित्री बाई फुले के द्वारा जलायी गयी ज्योति आज के समय में और अधिक प्रासंगिक है ।

सावित्रीबाई फुले का योगदान

आज देश की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के योगदान को जिस तरह याद करना चाहिए, वैसे नहीं किया जाता। 19वीं सदी में जब देश में राजनीतिक गुलामी के साथ-साथ सामाजिक गुलामी का भी दौर था, तब सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा के महत्व को जाना, समझा और महिलाओं की आज़ादी के नए द्वार खोलकर उनमें नई चेतना का सृजन किया। स्त्रियों को उनके अधिकारों के प्रति चेतना से लैस किया। यदि दूसरे पक्ष से देखें तो हम पाते हैं कि संविधान लागू होने बाद स्त्रियों को उनका अधिकार कानूनी रूप से मिला है। लेकिन सावित्री बाई फुले इस अधिकार की बात स्वतंत्रता के पहले ही कर रही थीं।

आज के दौर में सावित्रीबाई फुले की महत्ता

इस लिहाज से आज के समय में उनके द्वारा किए गए योगदान को समझना और जानना और भी जरूरी हो जाता है। कैसे उन्होंने उस दौर में स्त्रियों के अधिकारों, अशिक्षा, छुआछूत, सतीप्रथा, बाल या विधवा-विवाह जैसी कुरीतियों पर आवाज उठाई होगी? कैसे उन रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़कर महिलाओं को पढ़ने व आगे बढ़ने की राह दी होगी और देश की आधी आबादी महिलाओं को शिक्षा के माध्यम से मुख्यधारा में ला खड़ा किया होगा। उनका यह कार्य उनके स्त्री होने के कारण कहीं अधिक दुरूह था जबकि पूरा समाज पितृसत्ता में लैस था। ऐसे में दांत के भीतर जीभ बनकर उन्होंने न केवल स्त्रियों के बारें में सोचा बल्कि एक नया रास्ता भी तैयार किया।

तत्कालीन समाज की नई नायिका

तत्कालीन प्रतिकूल परिस्थितियों में समाज सुधारक सावित्री बाई फुले एक युग नायिका बनकर उभरीं । उन्हें सिर्फ समाज सुधारक कहकर उनके द्वारा किए गए कार्यों को सीमित नहीं किया जा सकता । अपनी तीक्ष्ण बुद्धि, निर्भीक व्यक्तित्व, सामाजिक सरोकारो से ओत-प्रोत ज्योतिबा फुले के साथ कंधे से कंधा मिलाकर दकियानूसी समाज को बदलने हेतु इन्होंने अपने तर्कों के आधार पर बहस किया। आज की स्त्री अभी भी इन तर्कों को अपने विषय वस्तु में शामिल करने से कतराती है। सावित्रीबाई ने वे स्त्री जीवन को गौरवान्वित किया एवं सामाजिक न्याय को लक्षित किया।

सावित्रीबाई फुले सिर्फ दलितों की मसीहा नहीं

दरअसल आज देखिये तो सावित्री बाई फुले को सिर्फ दलित वर्ग की समाज सुधारक के तौर पर ही देखा जाता है। कहा जाता है कि स्त्रियाँ जन्म से ही शूद्र होती हैं। हालांकि वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र सबसे निचले पायदान पर रखा गया है। इसलिए स्त्रियाँ भी समाज में सबसे निचले पायदान पर ही मानी गई हैं। चाहें वह किसी भी वर्ग/जाति की हों। ऐसे में यदि सावित्री जी स्त्री हित और अधिकार की बात करती हैं तो वह सिर्फ दलित स्त्रियों की ही बात नहीं करती हैं । उनकी पाठशाला और विधवा आश्रमों में सभी वर्गों की महिलाओं का प्रवेश होता था। किन्तु आज के समय में हम यह देखते हैं कि ज़्यादातर गैर दलित स्त्रियाँ सावित्री बाई को अपनी नायिका नहीं मानती हैं ।

सावित्रीबाई फुले का योगदान सिर्फ स्कूल बनाने का नहीं

सावित्रीबाई फुले को सिर्फ इस लिहाज से न देखा जाए कि वह एक दलित महिला थीं और उन्होंने कुछ स्कूलों की स्थापना की। उनका योगदान सिर्फ कुछ जातियों के विकास तक नहीं सीमित नहीं है। सावित्रीबाई फुले अपने आपको एक मनुष्य की दृष्टि से देखती थीं। उनके समय में किसी भी जाति की महिलाओं को पढ़ने का अधिकार न के बराबर था। उन्होंने सभी वर्ग की महिलाओं के लिए स्कूल खोले और उसमें बिना किसी भेदभाव के सभी की उपस्थिती सुनिश्चित किया। इस कार्य में उनके जीवनसाथी ज्योतिबा फुले जी का पूरा योगदान मिला। फुले दंपति शिक्षा को बेहद महत्व देते थे। ज्योतिबा फुले के द्वारा चलाये गए शिक्षा के आंदोलन को सावित्रीबाई फुले ने बखूबी आगे बढ़ाने में पूरा सहयोग दिया। ज्योतिबा फुले विद्या के महत्व धार्मिक किताबों से कहीं अधिक महत्व देते थे उनका मानना था कि -

विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया वित्त बिना शूद गये, इतने अनर्थ, एक अविद्या ने किये।

ज्योतिबा ने भी शिक्षा को दिया महत्व

महात्मा फुले ने जीवन में शिक्षा के अभाव से पड़ने वाले प्रभाव को रेखांकित करते हुए ये पंक्तियां ‘किसानों का कोड़ा’ नामक किताब में लिखी है। ज्योतिबा फुले ने समय रहते शिक्षा के महत्व को पहचाना। उन्होंने महसूस किया कि बहुजन समाज और उनके आसपास की महिलाएं शिक्षा की कमी के कारण गुलामी में हैं। इस आधार पर उन्होंने सुझाव दिया है कि ज्ञान की कमी के चलते बहुजन समाज को दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का जीवन भर सामना करना पड़ता है। उन्होंने निदान बताते हुए कहा है कि इस दुर्भाग्य की जड़ अज्ञानता है।

हर रुकावट से बावजूद शिक्षा के लिए काम किए फुले दम्पत्ति

स्त्री और दलितों की शिक्षा के प्रति फूले दम्पत्ति की प्रतिबद्धता किसी जूनून से कम नहीं थी। लगातार पैसे की कमी के बावजूद भी वे समर्पित भाव से इस काम में लगे रहे । उनका समर्पण इस रूप में स्पष्ट दिखाई देता है कि उन्होंने पूणे शहर और उसके आसपास कुल 18 स्कूल खोले जहां सभी विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। सावित्रीबाई द्वारा पढ़ाए गए न जाने कितने ही छात्रों के जीवन में उससे भारी परिवर्तन आया। लेकिन उनके इस योगदान को भारतीय महिलाएं या तो भूल गईं या जानबूझकर भुला दी गई। हम जब भी सावित्रीबाई को याद करते हैं तो उन्हें सिर्फ एक इतिहास का पात्र होने के नाते याद करते हैं। या फिर उनके कार्यों को एक कहानी के तौर पर याद करते हैं।

सावित्रीबाई फुले सिर्फ एक स्कूल तक सीमित नहीं

उनके विचारों को हम आत्मसात नहीं करते हैं। जबकि कहीं अधिक जरूरी यह होता है। सावित्रीबाई फुले सिर्फ स्कूल खोलकर शिक्षा देने का कार्य नहीं की बल्कि एक ऐसे समय में शिक्षा दे रही थीं जब उन्हें खुद पढ़ने का समय या अधिकार समाज नहीं दे रहा था। इसके बावजूद वह स्त्रियों को समाज, संस्कृति आदि के बारे में बता रही थी। उनकी कविताओं के एक-एक शब्द चिल्ला-चिल्लाकर स्त्रियों, दलितों को उनके अधिकारों के प्रति इंगित कर रहे हैं। इसे सिर्फ क्रांतिकारिता कह कर करके सीमित नहीं किया जा सकता। उन विचारों का समाज के भीतर प्रभाव को भी देखना चाहिए और उनके विचारों को आत्मसात करना चाहिए।

महिलाओं की आज़ादी उनके आर्थिक स्वतंत्रता में

दरअसल स्त्रियों का सम्मान से जीवित रहना बड़ी चुनौती है। इसके लिए उनका आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना ही एकमात्र उपाय है जिसके लिए उन्होंने कई धार्मिक मान्यताओं को तोड़ा और स्त्रियों को अपने बुनियादी अधिकारों के लिए जागरूक किया। यही बात आगे चलकर प्रभा खेतान भी कहती हैं, "स्त्रियों की आजादी उनके पर्स से शुरू से होती है।" सावित्री बाई फुले ने स्त्री की सदियों पुरानी शारीरिक और मानसिक रूप से गुलाम छवि को ध्वस्त कर उसे स्वतंत्र इंसान के रूप में जीने के लिए प्रेरित किया। यह सत्य है कि स्त्री केवल श्रम और देह ही नहीं बल्कि स्वतंत्र विचार रखने वाली पुरूष के समान एक इंसान है। उसे इसी रूप में देखने की जरूरत है। यह सोचने पर समाज को विवश कर ज्योतिबा के परिवर्तनवादी आंदोलन में पूरा सहयोग दिया।

सामाजिक बुराइयों की तरफ आगे बढ़ रहा तत्कालीन समाज

आज भारतीय समाज के जो हालात हैं उससे यह दिखाई देता है कि भारतीय समाज फिर से उन्हीं सामाजिक बुराइयों की तरफ लौट रहा है, जिसका सावित्रीबाई आजीवन विरोध करती रहीं। स्त्रियों और दलितों को सावित्रीबाई गुलामी से मुक्त कर उन्हें सम्मान के साथ जीने के लिए जिन्दगी भर संघर्ष करती रहीं। आज उनको फिर गुलाम बनाए रखने की साज़िश होने लगी है। उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरा लगाया जा रहा है। उन्हें उनके मानवाधिकारों से वंचित किया जा रहा है। समाज की आधी आबादी महिलाओं/लड़कियों को ऐसे माहौल में शिक्षा के साथ-साथ स्वाभिमान से जीने के लिए आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना बहुत ज़रूरी है। उनका अपने हक़-अधिकारों के लिए जागरूक होना जरूरी है।

महिलाएं अपने आपको एक मनुष्य की दृष्टि से देखें। उनके मनुष्य बनने के रास्ते में जो भी आए उससे संघर्ष करना जरूरी हो गया है। जब उनके अधिकारों का हनन हो, तो उसके लिए संघर्ष करना, लड़ना बहुत जरूरी है। यदि आज लड़कियां और महिलाएं सावित्रीबाई फुले की शिक्षा को अपनाए और उनको अपना रोल मॉडल बनाए तो कोई उनका किसी भी प्रकार का शोषण नहीं कर सकता । कोई उन पर हिंसा नहीं कर पाएगा। कोई उन पर पितृसत्ता व्यवस्था थोप नहीं पाएगा। जब महिलाएं शत-प्रतिशत आत्मनिर्भर बनेंगी, तो इससे देश का भी विकास होगा और देश प्रगतिशील बनेगा। सावित्रीबाई फुले से प्रेरणा लेकर शिक्षित-जागरूक लड़कियां अन्य लड़कियों और महिलाओं को शिक्षित, जागरूक कर समाज और देश के विकास प्रगति में अपना योगदान कर सकती हैं। स्त्रियाँ पढ़-लिख कर शिक्षित होकर, सावित्रीबाई के संघर्ष को जानकार जितना जागरूक होंगी, समाज का विस्तार उतना ही अधिक होगा । समाज से पितृसत्ता धीरे-धीरे खत्म होने लगेगी।


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