

वो कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम है। किसी भी क्षेत्र में बदलाव होना उसकी विश्वसनीयता और उस क्षेत्र को जीवंत बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है और ये नियम शिक्षा पर भी लागू होता है। जरूरी है कि हम अपने अतीत के साथ-साथ आज के समय में घटित हो रही घटनओं के साथ-साथ नई तकनीकों में जो विकास हो रहा है, उसे भी अपने पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाएं और उससे सीखें।
हालिया दिनों में जो पाठ्यक्रम और पुस्तकों में बदलाव हुए हैं वो अपने आप में विवादस्पद बने हुए हैं। एनसीईआरटी(राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद) द्वारा अपने पुस्तकों में किये गए बदलाव ने पूरे देश में विवाद छेड़ दिया है। एक तरफ जहां बुद्धिजीवियों में सही गलत पर बहस छिड़ रही है वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक पार्टियां अपने विचारों से मेल खाते पाठ्यक्रम को सही ठहराने में लगे हैं।
पाठ्यक्रम में बदलाव किस आधार पर
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की स्थापना 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय हुई थी। एनसीईआरटी के स्थापना के बाद से इसमें समय समय पर कई परिवर्तन किए गए। इस संस्था पर सरकार के हाथ की कठपुतली होने के आरोप लगते आए हैं, लेकिन मौजूदा समय में जो बदलाव हुए हैं वो कहीं न कहीं इस संस्थान पर लगने वाले आरोपों को प्रमाणित करते हैं और जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत इस पर सटीक बैठती है।
सिलेबस में बदलाव पर राजनीति क्यों
कहानी शुरू होती है 2022 में जब एनसीईआरटी द्वारा अपने पाठ्यक्रम में कुछ बदलाव करने की सूचना दी गई। लगभग हर विषय में बदलाव हुए। पाठ्यक्रम के बदलने के पीछे मुख्य कारण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 और कोविड 19 के कारण बच्चों पर पाठ्यक्रम को कम करने का हवाला दिया गया। लेकिन पाठ्यक्रम में हुए बदलाव के बाद जो परिणाम आया है, उसे देख कर ये अनुमान लगाना बिल्कुल भी कठिन नहीं के ये बदलाव विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हैं, या किसी विशेष राजनीति पार्टी की मंशा को असलियत का जामा पहनाने के लिए है। जिस तरह मौजूदा सरकार के वरिष्ठ नेता मंच से इस बात को सही ठहराने में लगे थे कि अब तक हमें इतिहास को ग़लत ढंग से पढ़या गया है, और इसे बदलने का समय आ गया है, ऐसा लगता है एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम में हुए बदलाव इन्हीं बड़बोलेपन से प्रेरित हैं।
पाठ्यक्रम में बदलाव क्या धार्मिक अजेंडा है
एनसीईआरटी का कहना है कि उसने अपने पाठ्यक्रम को युक्तिसंगत बनाने के लिए 25 बाहरी विशेषज्ञों से सलाह ली, परन्तु पाठ्क्रम में हुए बदलाव जैसे कि इतिहास से मुग़लों, महात्मा गांधी, उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे, हिंदू चरमपंथियों और 2002 के गुजरात दंगों के संदर्भ में कुछ हिस्से, राजनीति विज्ञान एवं समाजशास्त्र से आपातकाल से जुड़े अध्याय के ज़्यादातर हिस्से, सामाजिक आंदोलन, जाति व्यवस्था और भेदभाव, ऐसे तमाम विषयों को हटाया गया है। इन बदलावों पर अगर गौर करें तो ये साफ नज़र आता है कि इस पाठ्यक्रम के बदलाव में शामिल होने वाले विशेषज्ञ किसी एक पार्टी की विचारधारा को मानने वाले हैं, और पाठ्क्रम को युक्तिसंगत बनाने के नाम पर किसी एक धर्म और एक जैसे विचार वाले विषय को टारगेट किया गया है।
बहुत बारीकी से देखने पर इस बात का अंदाज़ा भी लग जाता है की इस बदलाव से विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम पर बहुत ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ेगा। जबकि उनकी सोच को एक ख़ास दिशा दी जा सकती है जिससे वो एक धर्म और एक पार्टी के समर्थक बन सकें और बाक़ी धर्म और राजनीति पार्टियों को नफ़रत करने के लिए उन्हें स्कूल कॉलेजों द्वारा सर्टिफाइड कर दिया जाए।
क्या मुग़लों के इतिहास को हटाना पाठ्यक्रम को बेहतर बनाना है
जिस तरह मुग़लों से जुड़े इतिहास के साथ छेड़छाड़ हुई है, वो बस चंद पन्नों की बात नहीं। क्या पाठ्यक्रम में बदलाव करते समय विशेषज्ञ ये भूल गए कि मुस्लिम शासकों को इतिहास से निकालने के लिए दो सौ सालों के इतिहास मिटाना होगा? मुग़ल मिटे तो महाराणा प्रताप, राणा सांगा और शिवाजी जैसे महान शासकों का भी वजूद ख़त्म हो जाएगा।
ताजमहल, लालकिला, कुतुबमीनार, अलाई दरवाज़ा और ऐसे तमाम धरोहर जो मुग़लों की निशानी इस देश में हैं, उसे कैसे मिटायेंगे? सोचने की बात ये है कि विशेषज्ञ समिति पर ऐसा क्या दबाव था जो उन्होंने मुग़लों से जुड़े अध्यायों के बीच-बीच के कुछ पैराग्राफ निकालने पड़े, जो पाठ्क्रम को युक्तिसंगत तो नहीं बनाता पर एनसीईआरटी एवं विशेषज्ञों के विचार पर सवालिया निशान ज़रूर लगाता है।
जातिगत तथ्यों को सिलेबस क्यों हटाना
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के विषय में किये गए बदलाव दुर्भाग्यपूर्ण हैं। वहीं जाति व्यवस्था और भेदभाव को पाठ्यक्रम से हटाने का क्या कारण हैं? जबकि 2018 से 2021 के बीच दलितों पर हुए अत्याचार के लगभग 1.8 लाख केस दर्ज हुए हैं। फिर भी इतने गंभीर विषय को हटाना , एक गंभीर मुद्दे से मुंह मोड़ लेने जैसा है। जबकि होना ये चाहिए था कि इस विषय में ऐसे परिवर्तन किए जाए जिससे आने वाली पीढ़ी अपने पूर्वजों द्वारा बनाई गई इस जाति व्यवस्था और भेदभाव के नाम पर मनुष्यों के साथ जानवरों से भी बदतर होने वाले व्यवहार से सीखते और इस कुप्रथा को निरंतर समाप्त करने का प्रयास करते।
दूसरी ओर सामाजिक आंदोलन को पाठ्क्रम से हटाना विद्यार्थी वर्ग को उस विरासत से अछूता रखना है जिसके पिछली और मौजूदा सरकारों के कठोर निर्णयों को आंदोलनों के माध्यम से बदलने पर मजबूर किया गया। क्या इसके पीछ की मंशा, दिमाग़ी तौर से अपंग विद्यार्थी वर्ग तैयार करना है, जिसे आवाज़ उठाने और आंदोलन की ताक़त से वंचित रखना है? ऐसे हालात में कल को कोई जय प्रकाश नारायण कैसे निकलेगा?
विद्यर्थियों का अतीत को जानना बेहद ज़रूरी
इन सारी बातों के बाद ये कहा जा सकता है कि, पाठ्क्रम में कुछ जोड़ना-हटाना या उसमें पूर्णतया परिवर्तन करना, इन सब बातों का तातपर्य केवल विद्यार्थियों को अपने वर्तमान में जो हो रहा है, और अतीत में जो हो चुका है। उससे जानना और उससे सीखना होना चाहिए न कि विद्यार्थियों को किसी विशेष राजनीति पार्टी के विचार धारा का समर्थक बनाना।