

जलवायु परिवर्तन एक ऐसी समस्या है जो इंसान के भूतकाल में किए और वर्तमान में किए जा रहे प्रकृति से खिलवाड़ का एक घातक परिणाम है जिसने मानव जाति के वर्तमान और भविष्य दोनों को मुश्किल में डाल दिया है। वैसे तो जलवायु परिवर्तन विभिन्न कारकों से प्रभावित होने वाली जटिल घटना है। ये वो सतत वैश्विक संकट है जिससे दुनिया का कोई भी भाग अछूता नहीं है, और आज पूरे विश्व के लिए चुनौती बन द्वार पर खड़ी है। भारत के द्वार पर ये चुनौती लगातर दस्तक दे रही है और जिसके भीषण परिणाम आज भारत के उत्तर क्षेत्रीय राज्यों में देखे जा सकते हैं।
जलवायु परिवर्तन से परेशान उत्तर भारत
जलवायु में परिवर्तन ने अपनी दस्तक से बीते सालों में भारत के उत्तरी क्षेत्रों में खासा नुकसान किया है जिसमें उत्तर भारत के राज्य पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य आते हैं। हाल के दिनों में इन क्षेत्रों में मौसम के पैटर्न में हो रहे महत्वपूर्ण बदलाव साफ देखे जा सकते हैं। गर्मी के दौर में बरसती बूंदों ने ना सिर्फ कृषि बल्कि आम जन की सेहत को भी नुकसान पहुंचाया है। इसके परिणामस्वरूप कृषि और मानव आजीविका, परिस्थितिक तंत्र पर काफ़ी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि, बारिश का बदलता पैटर्न, पिघलते ग्लेशियर, वायु प्रदूषण, वनों की कटाई और भूमि का खनन उत्तर भारत में निरंतर गति पकड़ते जलवायु परिवर्तन की प्रमुख वजह है।
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और बढ़ता तापमान
जलवायु परिवर्तन में मुख्य तौर पर को चालक का काम करता है वो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन है। उत्तर भारत में हो रहे प्रकृति के विरुद्ध औद्योगिक गतिविधियां, परिवहन और ऊर्जा उत्पादन के लिए जीवाश्म ईंधन को जलाना इसके प्रभाव के कारणों में शामिल हैं। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के आंकड़ों के अनुसार भारत का कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन 2022 में 3.5 बिलियन मीट्रिक टन तक पहुंच गया, जो पिछले वर्ष की तुलना में 6.3% अधिक है।
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि से ग्रीनहाउस प्रभाव की तीव्रता बढ़ती है, पृथ्वी के वातावरण में गर्मी फंसती है जो ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनती है। इसके परिणामस्वरूप तापमान में वृद्धि, वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन, और अधिक लगातार मौसम की अन्य घटनाएं जैसे हीटवेव और भारी वर्षा होती हैं। बढ़ता तापमान जलवायु परिवर्तन के प्राथमिक संकेतकों में से एक है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर भारत में पिछले एक दशक में औसत तापमान में लगातार वृद्धि हुई है। 2023 में, लंबी अवधि के औसत की तुलना में क्षेत्र में औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। इसका मूल कारण जीवाश्म ईंधन को जलाना है।
अंधाधुन वनों की कटाई
विकास के नाम पर होती वनों की कटाई और भूमि उपयोग उत्तर भारत में जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा दे रहे हैं। वन एक ओर कार्बन सिंक के रूप में कार्य करते हैं, तो दूसरी ओर कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर जलवायु को नियंत्रित करते हैं। परन्तु, तेजी से होते शहरीकरण, कृषि विस्तार और अवैध कटाई ने इन क्षेत्रों में पर्यावरण को क्षति पहुंचाई है। उत्तर भारत के वन विविध वनस्पतियों और जीवों के लिए महत्वपूर्ण कार्बन सिंक और आवास हैं। लेकिन, शहरीकरण के लिए बड़े पैमाने पर वनों की हुई कटाई से जैव विविधता का नुकसान हुआ है जिससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि हुई है। 2023 में, यह क्षेत्र लगभग 200,000 हेक्टेयर वन क्षेत्र खो चुके हैं। इतना ही नहीं भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तर भारत में 2001 और 2018 के बीच लगभग 1.2 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र का नुकसान हुआ है जो कि इन क्षेत्रों में पर्यावरण को पहुंचे नुकसान की कहानी बयान करते है।
वायु प्रदूषण और एरोसोल का बढ़ता प्रभाव
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 21 भारत में हैं, जिनमें से कई उत्तर भारत में स्थित हैं। 2023 में, उत्तर भारतीय शहरों ने PM2.5 का स्तर दर्ज किया जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा अनुशंसित सुरक्षित सीमा से अधिक था। ये जगजाहिर बात है कि आज उत्तर भारत गंभीर वायु प्रदूषण का सामना कर रहा है, जिसकी मुख्य वजह औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों के निकास और खाना पकाने और हीटिंग के लिए बायोमास और जीवाश्म ईंधन को ही नहीं बल्कि फसल अवशेषों को जलाना भी है। विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा राज्यों में फसल अवशेषों को जलाने से बड़ी मात्रा में पार्टिकुलेट मैटर और कार्बन मोनोऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे प्रदूषक पार्टिकुलेट मैटर और एरोसोल के वायुमंडल में छोड़े जाने से अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों तरह के जलवायु परिर्वतन की घटना होती है।
पिघलते हिमालय के ग्लेशियर
उत्तर भारत सहित हिमालयी क्षेत्र विशाल ग्लेशियरों का घर है जो क्षेत्रीय जल आपूर्ति को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालाँकि, बढ़ते तापमान ने इन ग्लेशियरों को पिघलाना शुरू कर दिया है, जिससे मुश्किल की स्थिति उत्पन्न हो गई है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के एक अध्ययन के अनुसार, हिमालय के ग्लेशियरों ने पिछले एक दशक में अपने द्रव्यमान का 10% खो दिया है। इतना ही नहीं जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) ने अपनी रिपोर्ट में ये बताया है कि हिमालय के ग्लेशियर प्रति वर्ष लगभग 8 बिलियन मीट्रिक टन की खतरनाक दर से पिघल रहे हैं। लंबे समय में, कम ग्लेशियर मात्रा जल सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा पैदा कर है, जिससे कृषि, जल विद्युत उत्पादन और नदी पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो रहे हैं।
वर्षा के बदलते पैटर्न
उत्तर भारत अपनी विविध और आदर्श कृषि पद्धतियों के लिए जाना जाता है, जो मानसून की वर्षा पर बहुत अधिक निर्भर है। लेकिन, इस बिगड़ते जलवायु परिवर्तन ने क्षेत्र के वर्षा पैटर्न को बुरी तरह बाधित कर दिया है। हाल के वर्षों में, मानसून के व्यवहार में एक उल्लेखनीय बदलाव आया है, जिसमें देरी और अनियमित वर्षा वितरण शामिल है। इस घटना के परिणामस्वरूप सूखे और बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि हुई है, जिससे कृषि क्षेत्र और क्षेत्र में समग्र खाद्य सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कृषि मंत्रालय के आंकड़े इन बदलते वर्षा पैटर्न के कारण फसल की पैदावार में गिरावट पर प्रकाश डालते हैं। 2023 में, उत्तर भारत ने औसत मानसून वर्षा में 20% की कमी का अनुभव किया, जिससे फसल की पैदावार और पानी की उपलब्धता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
जलवायु परिवर्तन किसी एक कारक से नहीं होता
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये कारक एक दूसरे के साथ और वैश्विक जलवायु प्रणालियों के साथ परस्पर क्रिया करते हैं, जिससे किसी विशेष क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के लिए प्रत्येक कारक के विशिष्ट योगदान को अलग करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसके अतिरिक्त, प्राकृतिक जलवायु परिवर्तनशीलता और दीर्घकालिक जलवायु पैटर्न भी उत्तर भारत की जलवायु को प्रभावित कर रहे हैं। किसी भी देश का आस्तित्व कई मापदंडों पर मापा जा सकता है पर कोई भी मापदंड की कोई बिसाद नहीं है। अगर उसका पर्यावरण ही अपने अंत की ओर हो। जलवायु परिवर्तन से पार पाने के लिए इन सारे कारकों पर जीत दर्ज़ करके ही एक बेहतर और सुदृण भविष्य की नींव रखी जा सकती हैं।